Thursday, April 16, 2009

१७ पंछी दे दे पांख

आपणी भाषा-आपणी बात
तारीख- १७//२००९

दोय घड़ी रै वास्तै,

पंछी दे दे पांख

मिनख अर पंछी रो जूनो हेत। जूनो नातो। लोक-साहित्य में मोकळा बखाण। बिजोगण नार पंछियां नै आपरी पीड़ सुणावै। मन हळको करै। मारवणी तो कुंझां सूं पांखड़ी मांगै। कूंझो, म्हानै थारी पांख द्यो। म्हैं थारो बाणो धार, सागर लांघ, पिव सूं मिल परी, पांख्यां थारी पाछी पूगती करसूं।

कूंझा द्यउ नीं पंखड़ी, थाकउ विनउ वहेसि।
सायर लंघी प्री मिळउं, प्री मिळि पाछी देसि।।

आपणी भाषा री एक हजार बरस पैली री रचना में इण भांत री बातां मिलै। आज री फिलमां में इण री नकल पर भलां ई 'पंख होते तो उड़ आती रे रसिया ओ बालमा' जिस्या गीत लिख्या जावै पण घणकरै गीतां रै मूल में आपणी भाषा रा लोकगीत ई रैया है। पांख्यां मांगी मारवणी, तो उथळो भी दियो कूंझां। सुणो-

म्हे कूंझां सरवण तणी, पांखां किणहि न देस।
भरिया सर देखि रहां, उड़ आघेरि वहेस।।

म्हे तो सरवर री कूंझां हां। पांखां किण नै ई नीं देवां। भरिया सरवर देखती, आगै सूं आगै उडती रैवां। म्हे जे मिनख हुंवती तो आपरो सनेसो मुख सूं बोल आपरै पिव नै सुणांवती। कूंझां हां। पण आपरै पिव तक सनेसो पूगास्यां। आप तो म्हारी पांखड़ियां पर सनेसो मांडो।

माणस हवां त मुख चवां, म्हे छां कूंझड़ियांह।
पिउ संदेसउ पाठविसु, लिखि दे पांखड़ियांह।।

आधुनिक कवियां भी पंछियां नै आपरी कवितावां मांय खूब बरत्या। रामसिंह सौलंकी रै दूहै मांय एक वीरांगना पंछी सूं पांख इण वास्तै मांगै कै उणरो पति सिर कटियां पछै भी वीरता दिखावै। वा आपरै पति री वीरता देखण नै उतावळी है।

सुणियो, पिव विण सिर लड़ै, जा आऊं झट झांख।
दोय घड़ी रै वास्तै, पंछी दे दे पांख।।

इण भांत री बाता मांडता रैस्यां। बांचता रैस्यां। आप कनै भी मोकळी बातां हुसी। कलम-कागद उठावो। मांडो अर 'आपणी भाषा-आपणी बात' रै ठिकाणै पूगती करो। आपरो नांव भी छपसी अर बातां भी।

आज रो औखांणो

पंछी जाणै पंछी री बोली।

पंछी जाने पंछी की बोली।

अपने मेल के लोगों की बातें अपने मेल के लोग ही समझ पाते हैं।

1 comment:

  1. प्रिय अजय,

    शुक्रिया.. आशा है स्‍वस्‍थ व कुशल मंगल होंगे.
    आपका ब्‍लाग शानदार और स्‍तुत्‍य है.. बड़छी करना समझते हो...

    सस्‍नेह
    पृथ्‍वी

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