Tuesday, May 7, 2013

राजस्थानी साहित्य विषय की उपादेयता


राजस्थानी साहित्य विषय की उपादेयता

डॉ. सत्यनारायण सोनी

एक जमाना था जब राजस्थान का शिक्षार्थी अपनी हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में आंशिक रूप से ही सही, अपनी भाषा की रचनाओं का आस्वाद कर लेता था। कन्हैयालाल सेठिया की ‘पातल और पीथल’ कविता हो या ‘धरती धोरां री’’, रेवतदान चारण का जनगीत ‘चेत मांनखां’ हो या रमेश मयंक की कविता की पंक्तियां ‘रूंख लगायां राख्या कोनी, मीठा फळ भी चाख्या कोनी, काटण हुया उंतावळा, बोलो किण रा भाग सरावां, किणनैं बोलां बावळा’, या फिर कल्याणसिंह राजावत के ‘घड़ला सीतल नीर रा’ शीर्षक वाले दूहे हों या बिज्जी की कहानी ‘घमंडी रो सिर नीचो’, बालक को आह्लाद से भर देती थीं। ये रचनाएं उसे अपने परिवेश, अपनी संस्कृति, अपनी धरती से जोड़ती थीं। सूर्यमल्ल मीसण, बांकीदास, नाथूसिंह महियारिया, चंद्रसिंह, रघुराजसिंह हाड़ा व ताऊ शेखावाटी की रचनाएं जब हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में थीं तो राजस्थान अपनी ही भाषा में बोलता प्रतीत होता था और विद्यार्थी व शिक्षक ही नहीं, पाठ्यपुस्तकों का अवलोकन करने वाला हर अभिभावक सांस्कृतिक गौरव की अनुभूति से भर जाता था।

रसूल हमजातोव ने अपने विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘मेरा दागिस्तान’ में मातृभाषा और उसके साहित्य पर बड़े ही मार्मिक शब्द कहें हैं। उन्होंने मातृभूमि, अपनी जनता व मातृभाषा को साहित्य के स्रोत बताया है। उनकी बात का सार यही है कि साहित्य वही कारगर है जिसमें अपनी धरती की महक हो। यह भी सच है कि अपनी जमीन से जुड़े बिना कोई शिक्षार्थी शेष दुनिया को ठीक से नहीं जान पाता और अपनी भाषा से परिचित हुए बिना शेष दुनिया की भाषाओं से भी परिचय के प्रति उसका रुझान नहीं बन पाता। तभी तो शिक्षाविद् मातृभाषा के माध्यम से शिक्षण की वकालत करते हैं। गांधीजी ने स्पष्ट लिखा था कि जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं। राजस्थानी के विद्वान शक्तिदान कविया ने भी लिखा है, ‘टाबर जिण तरै आपरी मा रो दूध चूंगतो उण रै अंतस रा भाव घणै कोड सूं ग्रहण करै नै उण री आज्ञा सब सूं पैली मानै है उणी तरै विद्यार्थी बाळक छोटी-मोटी बातां री जाणकारी सुरू मैं आपरी मातभाषा में चावै। जे उण नैं बा भाषा नीं सिखाई जाय तो बो बिचारो उणी तरै बिलखो नै उदास रैवै जिण तरीकै मा-बायरो टाबर।’

राजस्थान में भले ही राजस्थानी माध्यम से शिक्षण की व्यवस्था का अभाव हो, मगर आज भी खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए मातृभाषा का ही सहारा लेते हैं। प्राथमिक स्तर पर आज भी गिनती-पहाड़े और बारहखड़ी सिखाने का उचित माध्यम मातृभाषा ही साबित हो रहा है। एको-एक, दूवो-दो के स्टाइल से गिनती और एक दूणी-दूणी, दो दूणी च्यार से पहाड़े सिखाने का वही पुराना तरीका आज भी उतना ही कारगर है जितना आजादी से पहले तब कारगर था जब राजस्थानी प्रदेश में शिक्षा ही नहीं, राजकाज की भी भाषा थी। यही नहीं, विज्ञान, गणित सहित हिन्दी, अंग्रेजी व संस्कृत जैसे भाषा विषयों के शिक्षण के लिए आज भी शिक्षक मातृभाषा का सहारा लेते हैं। शिक्षण विशय को सहज ग्राह्य बनाने के लिए शिक्षक को ऐसा करना ही पड़ता है। गांधीजी ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा, ‘जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने में मुझे चार साल लगे, अगर अंग्रेजी के बजाय गुजराती मंे मैंने उन्हें पढ़ा होता तो उतना मैंने एक ही साल में आसानी से सीख लिया होता।’ क्या ही अच्छा हो, अपनी मातृभाषा के जो खेलगीत बालक गली-मोहल्लों में गुनगुनाता है, वे उसके शिक्षण के भी आधार बनें।

राजस्थान में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें लागू होने से अब प्रदेश की हिन्दी विषयक पाठ्यपुस्तकों में न तो राजस्थानी रचनाएं रही हैं और न ही राजस्थान। इस दिशा में चिंतन की दरकार है। वहीं उच्च माध्यमिक स्तर पर हिन्दी आधार व हिन्दी साहित्य ऐच्छिक विषय का पैटर्न एक जैसा होने से हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी उस विविधता और सरसता से वंचित रहता है जो अन्य विषय के विद्यार्थियों को सुलभ है या एन.सी.ई.आर.टी के पाठ्यक्रम से पहले सुलभ थी। एकरसता शिक्षण में ही नहीं, जीवन में भी बाधक होती है। हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी प्रतिदिन लगभग तीन कालांश में एक ही विषय का और एक ही पैटर्न से अध्ययन करने को बाध्य है, वहीं राजस्थानी साहित्य विषय उसे इस एकरसता से उबारकर सरसता की ओर ले जाने में सक्षम है। अपनी धरती और अपनी भाषा का साहित्य उसे आत्मीय अनुभूति देता है और यह आत्मीयता ही उसे आह्लाद से भर देती है। किसी भी साहित्यिक विषय की उपादेयता तभी है जब बालक में साहित्यिक अभिरूचि का बीजारोपण ही नहीं, विकास भी हो और हमेशा अपनी भाषा का साहित्य ही ऐसा करने में सक्षम हुआ है। बालक में सृजनात्मक क्षमता को उभारने व अपनी धरती, परिवेश और संस्कृति के प्रति आस्था जगाने का काम मातृभाषा ही कर सकती है। बालपन में अपनी भाषा के साहित्य से जुड़ाव ही उसे अन्य भाषाओं के साहित्य से रूबरू होने को प्रेरित करता है।

राज्य के स्कूलों में छठी से दसवीं तक तृतीय भाषा के रूप में पंजाबी, गुजराती, सिंधी, उर्दू आदि को देखकर शिक्षकों व अभिभावकों के मन में कभी-कभी सवाल जरूर उपजता है कि इनके साथ-साथ राजस्थानी शिक्षण की व्यवस्था क्यों नहीं? यह सवाल महज सवाल ही बनकर रह जाता है। समाधान की दिशा में माकूल प्रयासों का अभाव ही रहा।

राजस्थानी साहित्य विषय उच्च माध्यमिक स्तर पर वर्षों से स्वीकृत होने के बावजूद अधिकतर शिक्षक अब भी इससे अपरिचित बने हुए हैं या इसके प्रति कई तरह की निर्मूल शंकाएं हैं। उत्तरी भारत के अन्य प्रांतों यथा पंजाब, गुजरात आदि के लोगों में अपनी भाषा और साहित्य के प्रति जो लगाव है, वह राजस्थान में दृष्टिगोचर नहीं होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? यह पड़ताल का विषय है, मगर आर.ए.एस. सहित प्रदेश की सरकारी सेवाओं के लिए आयोजित लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति व इतिहास विषयक सवालों को तरजीह मिलने से इस विषय की उपादेयता बढ़ी है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवक-युवतियां गाइडों व संदर्भ पुस्तकों के माध्यम से राजस्थानी भाषा और साहित्य की सैद्धांतिक जानकारी हासिल करने का प्रयास करते हैं, मगर उसके व्यावहारिक पक्ष से तब तक अनजान ही रहते हैं, जब तक कि राजस्थानी भाषा और साहित्य का लिखित रूप में आस्वाद नहीं कर लेते। विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर इसे एक विषय के रूप में पढ़ने वाले विद्यार्थी इसके व्यावहारिक रूप से भी परिचित हो जाते हैं।

राजस्थानी साहित्य जीवन का साहित्य है। वह जीवन को प्रेरणा देने वाला और उसमें नई चेतना फूंकने वाला है। मदन मोहन मालवीय ने संसार के साहित्यों में इसका निराला स्थान बताया है तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि राजस्थानी भाषा के साहित्य में जो एक भाव है, जो एक उद्वेग है, वह केवल राजस्थान के लिए ही नहीं अपितु सारे भारतवर्ष के लिए गौरव की वस्तु है। इटली के विद्वान टैस्सीटोरी भी इस भाषा के इतने कायल हुए कि उन्हें यह अपनी मातृभाषा इतालवी से भी अधिक प्यारी लगी। ग्रियर्सन ने इसे स्वतंत्र भाषा के गौरव का अधिकार रखने वाली भाषा बताया। गांधीजी का एक और वक्तव्य स्मृति में कौंध रहा है, ‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हों, मैं उससे उसी प्रकार चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।’ राजस्थानी तो एक समृद्ध और विशाल समुदाय की भाषा है। प्रो. नरोत्तमदास स्वामी ने इस दृष्टि से राजस्थानी के लिए भारतीय भाषाओं में हिन्दी, बंगला, तेलुगू, तमिल और मराठी के बाद छठा स्थान निर्धारित किया है। प्रदेश के हर शिक्षार्थी को राजस्थानी भाषा व उसके साहित्य की गौरवमयी पहचान से परिचित करवाना हमारा फर्ज होना चाहिए।

प्रदेश के स्कूलों में उच्च माध्यमिक स्तर पर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रमानुसार राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल द्वारा प्रकाशित राजस्थानी साहित्य गद्य पद्य संग्रह-1 कक्षा 11 व राजस्थानी साहित्य गद्य पद्य संग्रह-2 कक्षा 12, यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ विरचित उपन्यास ‘हूं गोरी किण पीव री’ कक्षा 12, राजस्थानी साहित्य रो इतिहास, राजस्थानी छंद-अलंकार व राजस्थानी व्याकरण-रचना कक्षा 11 व 12 के लिए निर्धारित पाठ्यपुस्तकें हैं। इन पुस्तकों की भाषा अत्यंत सरल व सर्वग्राही है जो राजस्थान के हर अंचल के विद्यार्थी, शिक्षक व अभिभावक को अपनी ही लगती है। राजस्थान अध्ययन की पाठ्यपुस्तकों में विद्यार्थी ने यह तो भले ही जान लिया कि राजस्थानी भाषा और उसका साहित्य क्या है, मगर कैसा है, इसका जवाब उच्च माध्यमिक स्तर की राजस्थानी साहित्य की पाठ्यपुस्तकों से जुड़कर ही जाना जा सकता है और यह अवसर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और राजस्थान शिक्षा विभाग प्रदान करता है, बशर्ते कि शिक्षक व अभिभावक सहायक बनें।
-प्राध्यापक (हिन्दी)
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, परलीका, वाया-गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) 335504, 
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