Saturday, April 24, 2010

राजस्थानी रचनाकारां सारू सूचना

राजस्थानी रचनाकारां सारू सूचना

राजस्थानी जन-जन ताईं पूगै इण सारू बोधि प्रकाशन पुस्तक पर्व योजना रै तै'त 'राजस्थानी साहित्य माळा' छापण री तेवड़ी है। इण योजना में राजस्थानी रा दस रचनाकरां री एक-एक पोथी रो सैट ऐकै साथै प्रकाशित होय सी। ऐ दस पोथ्यां कहाणी, नाटक, एकांकी, लघुकथा, संस्मरण, व्यंग्य, रेखाचित्र, निबंध, कविता, गज़ल आद विधा में होय सी। साफ है एक विधा में एक टाळवीं पोथी। कुल दस पोथी रै एक सैट री कीमत 100/- (सौ रिपिया) होय सी। इण पोथी माळा रो संयोजन राजस्थानी रा चावा साहित्यकार श्री ओम पुरोहित 'कागद' नै थरपियो है।

योजना में सामल होवण सारू 15 मई, 2010 तक इण ठिकाणै माथै रुख जोड़ो-

श्री ओम पुरोहित 'कागद'
24, दुर्गा कॉलोनी, हनुमानगढ़ संगम-335512
खूंजै रो खुणखुणियो : 9414380571

बोधि प्रकाशन
एफ-77, सेक्टर-9,
रोड नं.-11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया,
बाईस गोदाम, जयपुर

Sunday, April 18, 2010

पत्रिका में पोलमपोल

पाठक-पीठ
समाचार संदर्भ : 'बोलियों से नहीं दी जाती शिक्षा'
राजस्थान पत्रिका री इण बेतुकी खबर पर हाथोहाथ जवाब मांड' मेल करयो हो. इण समाचार रै पक्ष में एक साथै कागद छ्पग्या, पण राजस्थानी जनता री तर्कसंगत बात एक भी नीं छपी. आज संपादक श्री भुवनेश जैन सूं बात हुयी तो बोल्या, हम इस मुद्दे पर अब कुछ नहीं छापेंगे। मतलब राजस्थानी जनता री एक भोत बड़ी पीड़ कोई अख़बार री पीड़ नीं हुय सकै। चलो कोई बात नीं, कोई घाल सकै मूँडै मै मूंग, पण आपां तो नीं. आओ बाँचां........

समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है 'पोलमपोल'
आदरणीय संपादक जी,
शुक्रवार को पत्रिका के राज्यमंच पर 'बोलियों से नहीं दी जाती शिक्षा' शीर्षक से समाचार पढ़कर हैरानी हुई। महज पांच-छह लोगों ने बंद कमरे में बैठकर एक प्रेस-नोट तैयार किया और पत्रिका ने करोड़ों राजस्थानियों की भावनाओं को आहत करने वाला यह समाचार प्रमुखता से छाप दिया।
पूरे समाचार में राजस्थानी जन-समाज को भ्रमित करने वाली बातों के अलावा कुछ नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. वेल्फील्ड अमेरिका, सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, डॉ. एल.पी. टैसीटोरी, डॉ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या, राहुल सांकृत्यायन, झवेरचंद मेघाणी, सेठ गोविन्द दास और काका कालेलकर जैसे विद्वान जिसे स्वतंत्र तथा बड़े समुदाय की एक समृद्ध भाषा मानते हैं, वह महज किसी व्यक्ति विशेष के कहने से बोली नहीं करार दी जा सकती। बोलियां किसी भी भाषा का शृंगार हुआ करती हैं। इस खूबी को भी खामी करार देना कहां की भलमनसाहत है? यह सवाल तो हिन्दी सहित दुनिया की किसी भी भाषा के लिए उठाया जा सकता है कि दिल्ली-मेरठ में खड़ी बोली बोली जाती है, आगरा-मथुरा में ब्रज, ग्वालियर-झांसी में बुंदेली, फर्रूखाबाद में कन्नौजी, अवध में अवधी, बघेलखंड में बघेली, छतीसगढ़ में छतीसगढ़ी, बिहार में मैथिली और भोजपुरी, मगध में मगही। ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा किसे माना जाएगा?
राजस्थान पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'पोलमपोल' शीर्षक से एक राजस्थानी दोहा एक दशक से भी अधिक समय से देख रहा हूं। शायद ही कोई पाठक हो जो सर्वप्रथम इसे पढ़ता हो। क्या इसे हाड़ौती, वागड़, ढूंढाड़, मेवात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़, शेखावाटी आदि अंचलों में समान रूप से नहीं समझा जाता? जब यह दोहा समान रूप से समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है तो पत्रिका को राजस्थानी की एकरूपता का इससे बड़ा क्या प्रमाण चाहिए? यही नहीं राजस्थानी लोकगीतों के ऑडियो-वीडियो सीडी समस्त अंचलों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। ग्यारहवीं से लेकर एम.. तक की पढ़ाई की पाठ्यपुस्तकों की भाषा समस्त अंचलों में एक ही जैसी प्रचलित है। बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण, डूंगरपुर की गवरीबाई, मेड़ता की मीरांबाई, मारवाड़ के समय सुंदर, मेवाड़ के चतुरसिंह और सीकर के किरपाराम खिडिय़ा, बाड़मेर के ईसरदास, अलवर के रामनाथ कविया का काव्य पूरे राजस्थान में सम्मान्य है तो ऐसे तर्कहीन बयानों को पत्रिका प्रोत्साहन क्यों दे रही है?
राजस्थानी के सम्बन्ध में अविवेकपूर्ण टिप्पणी करने वाले ये महानुभव हिन्दी की प्रमुख बोली कही जाने वाली मैथिली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर तो मौन साधे रहते हैं और विश्व की एक बहुत ही समृद्ध भाषा को उसका वाजिब हक दिलाने की मांग का विरोध करने लगते हैं।
राजस्थानी को हिन्दी की बोली मानने वाले ये महानुभव अगर सही मायने में हिन्दी के हितैषी हैं तो प्राचीन और मध्यकालीन सैकड़ों प्रसिद्ध रचनाकारों सहित कन्हैयालाल सेठिया, चंद्रसिंह बिरकाळी, रघुराजसिंह हाड़ा, अन्नाराम सुदामा और विजयदान देथा जैसे कितने ही आधुनिक लेखकों की राजस्थानी रचनाओं को हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल करवाने की वकालत क्यों नहीं करते?
मान्यवर, करोड़ों-करोड़ों राजस्थानी जन-समाज, जो कि सन् 1944 से लेकर आज तक अपनी भाषा को उचित सम्मान दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहा है, को 'चन्द स्वार्थी लोगों' की संज्ञा से अभिहित कर राजस्थान पत्रिका ने उन करोड़ों राजस्थानियों को ठेस पहुंचाई है, जिन्होंने हमेशा 'पत्रिका' को अपने हृदय का हार समझा है।
बस, यही निवेदन है।
-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी,
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, परलीका (हनुमानगढ़)
कानाबाती : 9602412124

Thursday, April 15, 2010

बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ


बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ

- अतुल कनक
(पूर्व संचालिका सदस्य- राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर
प्रदेश मत्री:- अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति.

स्वतंत्र भारत में शिक्षा को लेकर गठित हुए कमोबेश सभी आयोगों ने अपनी अपनी सिफारिशों में शुरूआती शिक्षा मातृभाषा में देने की बात कही है। अनिवार्य शिक्षा विधेयक ने एक बार फिर इस आवश्यकता को रेखांकित किया है। राजस्थान में मातृभाषा में शिक्षण का मुद्दा इसलिये विवादित हो चला है कि राजस्थानियों की मातृभाषा राजस्थानी को अभी तक संवैधानिक मान्यता नहीं मिली है। मान्यता के विरोधी राजस्थान की विविध बोलियों की स्वरूपगत विविधता को लेकर सवाल खड़ा कर रहे हैं कि जिस राजस्थानी का कोई मानक स्वरूप नहीं है, उसे यदि संवैधानिक मान्यता कैसे दी जानी चाहिये। आश्चर्यजनक बात यह है कि मानक स्वरूप का सवाल उस भाषा के लिये खड़ा किया जा रहा है, जिस भाषा की राजस्थान में अपनी एक अकादमी है, केन्द्रीय साहित्य अकादमी हर साल जिस भाषा में सृजनात्मक लेखन को देश की अन्य प्रमुख भाषाओं के साथ पुरस्कृत करती है, जिस भाषा को माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है और देश -दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में जिस भाषा में अध्ययन और शोधकार्य हो रहे हैं। स्पष्ट है कि मान्यता का विरोध दरअसल भाषा का विरोध नहीं, स्वार्थों का विरोध है।
राजनीतिक दृष्टि से हमारे दौर में यदि किसी व्यक्ति के कार्यालय को दुनिया का सर्वाधिक शक्ति संपन्न कार्यालय के बारे में चर्चा की जाये तो स्वाभाविक तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय का उल्लेख होगा। कुछ समय पहले जारी एक विज्ञप्ति में अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय में मनोनयन के लिये जिन भाषाओं के ज्ञान को वरीयता देने की बात कही गई, उनमें राजस्थानी भी एक है। मूल विज्ञप्ति में राजस्थानी के लिये मारवाड़ी शब्द का उपयोग किया गया है। उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी राजस्थानी भाषा की एक प्रमुख बोली है और मारवाड़ अंचल के व्यापारियों के व्यापक कारोबारी प्रभाव के कारण अक्सर राजस्थानी को मारवाड़ी कह दिया जाता है। मारवाड़ी के साथ ही ढूढाड़ी, वागड़ी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मेवाती जैसी बोलियां अपनी तमाम उपबोलियों के साथ राजस्थानी के गौरव की संवाहक भी हैं, और पहचान भी। बोलियों के रूप में परिवर्तन के बारे में तो राजस्थानी में एक कहावत भी प्रचलित है- ‘बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ/ बरस छत्तीसा जोबन पलटे, लखण न पलटे लाखाँ ।’
अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय ने राजस्थानी भाषा की क्षमता को मान्यता उस समय दी, जबकि राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग अपने चरम पर है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जन महत्व की भाषाओं को संवैधानिक मान्यता देने के लिये ही संविधान में आठवीं अनुसूची की व्यवस्था की है। लोकतंत्र की महत्ता इस बात में भी है कि वह जनता की आवाज़ को बुलंद करने वाली भाषाओं की ताकत को पहचानता भी है और स्वीकार भी करता है। लोकतंत्र ही क्या, दुनिया की हर राजनीतिक व्यवस्था में लोकभाषाओं की ताकत को स्वीकार किया जाता है। औपनिवेशिक शासनों में इसीलिये शासित राज्यों में शासक शासितों के भाषाई और सांस्कृतिक गौरव का अवमूल्यन करने की हर संभव कोशिश करते थे। इस संत्रास को भारत ने भी झेला है। औपनिवेशिक ताकतों की इसी साज़िश को पहचानते हुए खड़ी बोली के जनक माने जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भारत के पहले स्वातंत्र्य संघर्ष के दिनों में ही लिखा था - निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। अपनी भाषा की उन्नति ही सर्वतोमुखी उन्नति का आधार है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने जब ‘निज भाषा ’ की बात की थी तो उनका मंतव्य भी यही था कि लोक अपनी ताकत को पहचाने। एक भाषा के तौर पर राजस्थानी लोक के प्रति अपने दायित्वों को आज भी बखूबी निभा रही है। व्हाइट हाउस की विज्ञप्ति में राजस्थानी को मान्यता इसका प्रमाण है। दरअसल यह विज्ञप्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान के निवासियों की योग्यता को भी रेखांकित करती है और एक सामर्थ्यवान भाषा के तौर पर राजस्थानी की क्षमता को भी । विसंगति यह है कि इसी राजस्थानी भाषा को भारत के ही संविधान की आठवीं सूची में शमिल किये जाने की मांग दशकों पुरानी होने के बावजूद आज तक पूरी नहीं हो सकी है। डा. कनहेया लाल सेठिया तो - खाली धड़ री कद हुवै, चैरे बिन पिछाण / मायड़ भासा रे बिना क्यां रो राजस्थान ’ कहते कहते ही हमेशा के लिये मौन हो गये। राजस्थान की संस्कृति के गौरव गायक सेठिया का यह दोहा राजस्थानी की मान्यता के संघर्ष का प्रतिनिधि बन गया है।
बेशक राजस्थानी में बोलीगत वैविध्य है, लेकिन यह विविधता ही भाषा को समृद्व करती है। कया हम में से कोई भी यह दावा कर सकता है कि वह हिन्दी के नाम पर जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, वह हिन्दी के मानक स्वरूप की अनुगामिनी है। चेकोस्लोवाकिया के हिन्दी विद्वान डॉ. ओदोलन स्मेकल जब पहली बार भारत आये थे तो उन्होंने निराशापूर्वक कहा था कि मैं जिस भाषा को सीखकर यहाँ आया था, उसे सुनने के लिये तरस गया। दरअसल भाषाएँ तो एक नदी की तरह होती हैं। निरंतर प्रवाह उनके स्वरूप को परिवर्तित करता ही है। हिन्दी का मानक स्वरूप संस्कृत निष्ठ है लेकिन आज हिन्दी में अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी ही नहीं पुर्तगाली तक के शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। भाषा की यह लोचशीलता ही उसे व्यापक बनाती है। आज भी अंग्रेजी के सर्वाधिक मान्य शब्दकोषों में एक ‘आक्सफोर्ड डिक्शनरी ’ में हर साल कुछ विदेशी भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को शामिल किया जाता है। जहाँ तक राजस्थानी के मानक स्वरूप का सवाल है राजस्थानी के प्राचीन ग्रंथों की भाषा हमारे लिये अनुकरणीय हो सकती है। राजस्थानी का पहला उपन्यास कनक सुंदर करीब एक सौ दस साल पहले हैदराबाद से छपा था। उससे भी पहले सन् 1857 में बूँदी के राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपने साथियों को जो पत्र लिखे थे या फिर उससे भी करीब चार सदी पहले गागरौन के शिवदास गाडण ने ‘अचलदास खींची री वचनिका ’ नाम से जो पुस्तक लिखी थी, उन सबकी भाषाओं में अद्भुत साम्य है। इन सबने संबंध कारक का/के/की के स्थान पर रा/रे /री का और है/ था के स्थान पर छा/छै/ छी का प्रयोग किया है। बोलियों को समाज मुखलाघव के सिद्वांत के तौर पर इस्तेमाल करता है लेकिन इसे भाषा के मूल स्वरूप पर प्रश्नविन्ह के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। क्या मुंबई में बोली जाने वाली हिन्दी और पटना में बोली जाने वाली हिन्दी में कोई अंतर नहीं है? क्या किशोरवय लड़कियों में अत्यधिक लोकप्रिय रहे बार्बरा कार्टलैण्ड के उपन्यासों की अंग्रेजी भाषा को नीरद सी. चैधरी की क्लासिक अंग्रेजी के साथ रखा जा सकता है?
राशिद आरिफ का एक शेर है -‘‘ मेरी अल्लाह से बस इतनी दुआ है राशिद / मैं जो उर्दू में वसीअत लिखूँ, बेटा पढ़ ले। ’’ राजस्थान के करोड़ों राजस्थानी भाषी भी ऐसा ही कोई सपना संजोते हैं तो क्या यह उनका अधिकार नहीं है?
38 ए 30, महावीर नगर-विस्तार,कोटा (राजस्थान)

Sunday, April 11, 2010

राजस्थानी को बचाना जरूरी

समाचार सन्दर्भ- राजस्थानी को बचाना जरूरी
(समाचार पढऩे के लिए क्लिक करें।)

जनपद री बोल्यां है मिणियां,

माळा राजस्थानी।

-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी

मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों ने अपने बयानों में राजस्थानी को बचाना जरूरी माना है और दबी जुबान में कुछ शंकाएं भी प्रकट की हैं, जो कि पूर्णतया बेमानी और आधारहीन हैं। यह उनकी भाषाई समझ के दिवालिएपन का द्योतक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी को चिंता है कि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि राजस्थानी भाषा किसे कहा जाए, क्योंकि हर क्षेत्र में अलग-अलग बोलियां हैं। हम राजस्व मंत्री महोदय को याद दिलवाना चाहते हैं कि बोलियां किसी भी भाषा की समृद्धता की सूचक होती हैं। दुनिया के समस्त भाषाविद यह मानते हैं कि जिस भाषा में जितनी अधिक बोलियां होंगी वह उतनी ही समृद्ध होगी। बिना अंगों के शरीर की तरह से होती है बिन बोलियों के भाषा। भाषा अंगी और बोलियां अंग होती हैं। हिन्दी की अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, ब्रज, बांगरू, खड़ी, कन्नौजी, मैथिली आदि बोलियां ही तो हैं। हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में अवधी के तुलसी, ब्रज के रसखान और सूर, मैथिली के विद्यापति, सधुक्कड़ी के कबीर आदि गर्व के साथ पढ़ाए जाते हैं। भाषाई विभिन्नता के बावजूद भी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी के आधुनिक गद्य लेखकों के रूप में प्रसिद्ध हैं। पंजाबी की पोवाधि, भटियाणी, रेचना, सेरायकी, मांझी, दोआबी, अमृतसरी, जलंधरी आदि कितनी ही बोलियां हैं और वह विश्वभर में सम्मानित है। इसी भांति राजस्थानी की मेवाती, मेवाड़ी, हाड़ोती, ढूंढाड़ी, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियों के बावजूद लेखन के स्तर पर एक ही भाषाई रूप प्रचलित है। अंचल विशेष के प्रभाव से कहीं-कहीं विविधता नजर आती है तो वह कमजोरी नहीं भाषा की, खासियत है। साहित्य के लिए यही अनिवार्य शर्त होती है कि उसमें हर स्तर पर लेखक का परिवेश बोलना चाहिए। हम माननीय हेमारामजी से निवेदन करना चाहते हैं कि राजस्थानी भाषा में प्रकाशित होने वाली दर्जन-भर पत्र-पत्रिकाएं अपने घर पर मंगवाएं। ग्यारहवीं से लेकर एम.. तक की पढ़ाई में शामिल राजस्थानी साहित्य की पाठ्यपुस्तकें पढ़कर देखें। बाजार में उपलब्ध राजस्थानी लोकगीतों के केसेट्स ऑडियों-वीडियो सीडी घर पर लाकर कभी फुरसत में सुना करें। और फिर अपना वही सवाल दोहराएं। राजस्थानी के अनुभवी और विद्वान लेखकों ने पाठ्यपुस्तकें ऐसी तैयार की हैं कि उनमें हर विद्यार्थी को अपनेपन की महक आती है। सिंहासन पर बैठकर आदमी अपनी जमीन से कट जाता है और किसी विषय में अल्पज्ञानी होते हुए भी बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगता है।
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री भरतसिंह की कमोबेश यही चिंता है जिसका जवाब ऊपर की पंक्तियों में चुका है, मगर उनके इस बयान से हमें घोर आपत्ति है कि हिन्दी और अंग्रेजी ऐसी भाषाएं हैं जिसे हर क्षेत्र का व्यक्ति सहजता से समझ सकता है। माननीय भरतसिंह जी, आप अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन्हीं भाषाओं में वोट क्यों नहीं मांगते? क्योंकि आपकी वोटर-जनता तो इन्हें सहजता से समझती है। घर के शादी-समारोहों, व्रत-त्योहारों और उत्सवों पर भी इन्हीं भाषाओं के गीत गाए जाते होंगे आपके यहां? हाड़ोती के लोग अगर हिन्दी और अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं तो घर-परिवार में नहीं। जहां जरूरत हो इनकी वहां किया भी जाना चाहिए। राजस्थानी का सम्मान करने का मतलब किसी अन्य भाषा की अवहेलना नहीं होता, सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना चाहिए। हाड़ोती अंचल के बहुत-से आयोजनों में जाने का मौका मिला है। ठेठ हाड़ोती में बातचीत करते हुए देखता रहा हूं और मंचों से बोलते हुए भी सुना है मैंने लोगों को। बहुत-से लेखक मित्रों यथा- अतुल कनक, प्रहलाद सिंह राठौड़, डॉ. शांति भारद्वाज राकेश, गिरधारी लाल मालव आदि से फोन पर बातचीत भी ठेठ राजस्थानी भाषा और बाकायदा उनके हाड़ोती लहजे में होती है। माननीय भरतसिंहजी, हम जानते हैं और इसलिए आपकी प्रशंसा सुन चुके हैं कि आप जनसभाओं को ठेठ हाड़ोती में सम्बोधित करते हैं, फिर आज आपने यह बयान दिया है तो हमें बड़ा अचरज हो रहा है।
पूर्व शिक्षामंत्री कालीचरण सराफ को चिंता है कि राजस्थानी लागू होने से वैश्विकरण के दौर में हम पीछे रह जाएंगे। तो सवाल यह उठता है कि भारत के लगभग हर प्रांत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती है और राजस्थान में नहीं। बताइए वे प्रान्त कितने' पीछे रह गए और राजस्थान के बच्चों से उनकी मातृभाषा छीनकर आपने कितना' आगे निकाल दिया? गांधीजी ने अपने अनुभवों के आधार पर जो लेख लिखे उनमें स्पष्ट किया कि जितनी अंग्रेजी और फारसी बालक अन्य माध्यम से चार साल में सीखता है वही अपनी मातृभाषा के माध्यम से एक बरस में सीख सकता है। वैश्विकरण के दौर में आप बच्चों को अगर अंग्रेजी सिखाना चाहते हैं तो वह मातृभाषा के माध्यम से ही सिखाइए और उसकी सीखने की गति तो देखिए। दुनियाभर के शिक्षाविद कोई अंधेरे में तीर नहीं मार रहे। अपने अनुभवों का निचोड़ पेश किया है उन्होंने। गांधीजी की बात पर गौर फरमाएं- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
और अंत में कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आप सब के लिए-
मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी,
हाड़ोती, मरुवाणी।
सगळां स्यूं रळ बणी जकी बा
भाषा राजस्थानी।
रवै भरतपुर, अलवर अळघा
आ सोचो क्यां ताणी!
हिन्दी री मां, सखी बिरज री
भाषा राजस्थानी।
जनपद री बोल्यां है मिणियां,
माळा राजस्थानी।

कानांबाती : 09602412124

Thursday, April 8, 2010

राजस्थान में राजस्थानी ही हो शिक्षा का माध्यम

राजस्थान में राजस्थानी ही हो शिक्षा का माध्यम

गलती सुधारने का सुनहरा अवसर

गांधी जी के शब्द- 'जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा
में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।'
त्रिगुण सेन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए। दूसरी ओर राजस्थान के शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल का बचकाना बयान अखबारों में प्रकाशित हुआ है कि फिलहाल राज्य में हिन्दी ही मातृभाषा है। जबकि मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही हमारी मातृभाषा होती है। मंत्री महोदय के बयान पर तरस आता है और बरबस ही उनके लिए कुछ सवाल जेहन में खड़े हो जाते हैं। माननीय मंत्री महोदय भी इसी राज्य के हैं। क्या उनकी मातृभाषा हिन्दी है? क्या उन्होंने अपनी मां से हिन्दी भाषा में लोरियां सुनीं। हिन्दी में ही उनके घर पर विवाह आदि उत्सवों के गीत गाए जाते हैं? हिन्दी में ही वे वोट मांगते हैं? जनता से संवाद हिन्दी में करते हैं? जिस महानुभव को महज इतना-सा अनुभव नहीं, उन्हें राजस्थान के शिक्षा मंत्री बने रहने का कोई हक नहीं।
आजादी के पश्चात राजस्थान में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में जो गलत निर्णय हुआ उस गलती को सुधारने का अब एक सुनहरा अवसर आया है और राजस्थान की सरकार अगर गांधीजी के विचारों का तनिक भी सम्मान करती है तो प्रदेश में तत्काल मातृभाषा के माध्यम से अनिवार्य शिक्षा का नियम लागू कर देना चाहिए। राजस्थान के शिक्षा-नीति-निर्धारकों को गांधीजी के इन विचारों पर अमल करना चाहिए- 'शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए, और प्रांतीय भाषाओं को उनका वाजिब स्थान मिलना चाहिए। यह जो काबिले-सजा बर्बादी रोज-ब-रोज हो रही है, इसके बजाय तो अस्थाई रूप से अव्यवस्था हो जाना भी मैं पसंद करूंगा।' अपने व्यक्तिगत अनुभव से गांधीजी को यह पक्का विश्वास हो गया था कि शिक्षा जब तक बालक को मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती, तब तक बालक की शक्तियों का पूरा विकास करने और उसे अपने समाज के जीवन में पूरी तरह सहयोग देने लायक बनाने का अपना हेतु भलीभांति सिद्ध नहीं कर पाती। भारत कुमारप्पा के संपादन में गांधीजी के विचारों पर आधारित 'शिक्षा का माध्यम' नामक पुस्तिका में उनके शब्द हैं, 'मातृभाषा मनुष्य के विकास के लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना छोटे बच्चे के शरीर के विकास के लिए मां का दूध। बच्चा अपना पहला पाठ अपनी मां से ही सीखता है। इसलिए मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़कर दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं।' गांधीजी को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा गुजराती में नहीं मिली। उन्होंने लिखा कि जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायन शास्त्र और ज्योतिष सीखने में उन्हें चार साल लगे, अंग्रेजी के बजाय गुजराती में पढ़ा होता तो उतना एक ही एक साल में आसानी से सीख लिया होता। यही नहीं गांधीजी ने माना कि गुजराती माध्यम से पढऩे पर उनका गुजराती का शब्दज्ञान समृद्ध हो गया होता और उस ज्ञान का अपने घर में उपयोग किया होता। गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि मातृभाषा के अलावा अन्य माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक और उसके कुटुम्बियों के बीच एक अगम्य खाई निर्मित हो जाती है। 'हरिजन सेवक' और 'यंग इंडिया' नामक पत्रों में गांधीजी ने इस मुद्दे को लेकर अनेक लेख लिखे। मातृभाषा को उन्होंने जीवनदायिनी कहा और उसके सम्मान के लिए हर-सम्भव प्रयास की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
काबिले-गौर बात यह भी है, जिसमें गांधीजी ने लिखा- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।'
राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, गुजराती या हिन्दी आदि माध्यमों से शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक बालकों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की सुविधा भी मिलनी चाहिए।

लेखक हिन्दी के व्याख्याता और राजस्थानी के साहित्यकार हैं।
email- aapnibhasha@gmail.com
Mobile- 96024-12124

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