Wednesday, January 7, 2009

८ काटूं कीकर रातड़ी, ईं छैलै रै लैर

आपणी भाषा-आपणी बात
तारीख-८/१/२००९

काटूं कीकर रातड़ी, ईं छैलै रै लैर

पैली एक हरियाणवी रागणी आपणै इलाकै में भोत चालती- 'दारू दुसमण हो माणस की, या नां पीणी प्याणी चइयै। या करै सरीर का नास आदमी नै अकल आणी चइयै।' सुधार करणिया तो घणो ई सुधार करणो चावै, पण
फाड़णियै नै सींवणियो कांईं पूरो आवै। फेर ई आपां नै हार कोनी मानणी। आपणा जतन चालता रैणा चइयै। बडेरा कैवै, पाणी पीवतां-पीवतां कदे तो नाज रो कस आवै ई। लारलै दिनां एक टाबर मिल्यो, बण आपरै दादो सा पर साखी जोड राखी ही। म्हैं बोल्यो सुणा! ल्यो आप भी सुणो-
दारू पीवै दादो सा, दावा लेवै नाप गा।
नसो होयां बाद में, दूहा बोलै आप गा।।
आपणै मान-मनवार रा ठाट निराळा। सैलाणी भाज्या आवै। आपणा लोकगायक गावै-
साजन आया ऐ सखी, कांईं भेंट करां।
थाळ भरां गज-मोतियां, ऊपर नैण धरां।।
अब म्हारै एक भायलै लारलै दिनां इण दूहै रो नूंवो संशोधित संस्करण काढ़ दियो। सुणो-
साजन आया ऐ सखी, कांईं मनवार करां।
तीतर काटां सांतरो, सागै बोतल धरां।।
क्यूँ आया नीं ठाठ। दारू पीवणियां रै तो घी रा दीवा-सा चसग्या। बां नै ओ दूहो भी भोत प्यारो लागै। प्यालां में मदहोस बोल्या करै-
दारू पीवो रंग करो, राता राखो नैण।
जोसीड़ा जळ जळ मरै, सुख पावैला सैण।।
आपणै राजस्थानी में एक नांमी कवि होया, ऊमरदांन लाळस। 'दारू रा दोष' नांव री एक जबरी रचना लिखी। एक दूहो अरज करूं-
दारू, पर-दारा दुहूं, है तन-धन री हाण।
नर सांप्रत देखो निजर, नफो और नुकसाण।।
परलीका वासी कवि रामस्वरूप किसान तो घणा ई दूहा इण विसै में मांड्या है। आपां बांचता ई रै'स्यां। आज एक दूहो-
बोतल साथै बातड़ी, ब्याही साथै बैर।
काटूं कीकर रातड़ी, ईं छैलै रै लैर।।
आज रो औखांणो
दारू दोगलो, पीयै आचलो, धूळ खावै, धूम मचावै, ओछै घर करै वास।
दारू दोगला, पीये हरामी, कुकर्म करे, धूम मचाये, करे नीच घर निवास।
शराब पीने वाला सब तरह से गया-गुजरा, हीन और पतित होता है।
शराब में सिवाय अवगुण के और कुछ भी नहीं होता।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।

1 comment:

  1. साहित्यकारों के गाँव परलीका के बारे में पढ़ते ही सहज आनुमान हो गया कि ये अवश्य ही भाषा सेवक होंगे। नमस्कार स्वीकारें आप दोनों, एक दिन रंगकर्मी के अखाडे पर भी नागाह डाली थी। अभी हरयाणवी रागणी पर ही पढ़ पाया हूँ।

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