आपणी भाषा- आपणी बात
तारीख- २३/१/२००९
पाळो जद पोह में बड़ै, जवानी ढुळ-ढुळ पड़ै। बिरवां रा पान झड़ै अर काळा बांबी में बड़ै। जद ओ जमै माट अर घड़ै। डील में बिच्छू सा लड़ै। लोग बतळावै, दावो पड़ग्यो। आक दावो।
आक दावो पड़ै जद आक रा पानका बळै। अरण्ड अर सरस्यूं री खेती नै खतरो। लोग खेतां में जावै। सरसम री फळी ल्यावै। चीर-चीर उगाड़ में दिखावै, ऐ देखो रगड़ दिया। एक ई दाणो नीं छोड्यो। सगळां रो पांणी बणा दियो। मुरड़ांद आवै फळियां में। पाळै सूं सीजग्या दाणा। अब द्यो दरखास खराबै री।
लोग खराबै री दरखास देंवता फिरै। दूजी कानी पाळो आं सगळी बातां सूं बेखबर गे़ड चढण लागै। जोबन ऊफणै। आक दावै सूं लक्कड़ दावै पर आवै। लक्कड़ दावो सैं सू खतरनाक। कोढियो रट्ठ। कोझो को'ड़ो। जिकै में बूई-सिणिया अर छोटा-मोटा रूंख तकात भुळसीजै। देखतां-देखतां हर्यो रूंख लक्कड़ बणै। आखी रोही तुरड़ीज जावै। पूरी जमीं पर बरफ री चादर बिछ जावै। इस्यै रट्ठ में खेती रो कांइं माजणो। किरसा गरळावै, आज सरग्यो काम। इणनै कैवै पाळो। तुखम ई कोनी छोडी। लक्कड़ दावो पड़ग्यो।
पाळै रो ओ तांडव आधै माह तांई चालै। पूरी दुरळ मचावै। पछै तर-तर जोबन ढळै। जवानी रो नसो उतरै। आंख खोलै। च्यारूंमेर निरखै। आपरी करणी पर पछतावै अर सगळां रा घाव सै'लावै। बिरवां पर कूंपळ फोडै। टूटी वणराय जोडै। रोवतड़ा जीव हँसावै। धरती पर फूल खिलावै। अब पाळो बसंत कुहावै।
पाळै अर बूढै में उलटो संबंध। पाळो जद जुवान हुवै तो बूढो और ई बूढो। अर पाळो जद बूढो हुवै तो बूढो छक जवान। दोय दांत। खड़्या कान। पांख आज्यै। रग-रग नाचण लागै। सूत्योडो जोबन जागै। बोलो, है कांइं कसर? ओ रुत रो असर। आं नै कैवै रुत-रुत रा मेवा। कदे राकस तो कदे देवा।
पाळो बूढो हुग्यो। पाळै नै पाळो लागै। जाड़ बाजै। धूजणी छूटै। गळ में गोडा घाल रिजाई में बड़ग्यो पाळो। अर दूजी कानी? बो देखो बूढियो। रिजाई रै लात मार, मांची सूं कूद, हाथां में डफ झाल्यां खड़्यो है।
फागण आग्यो बेलियो! मदमावतो फागण। नाचतो-गावतो फागण। गुलाल उडावतो फागण। पाळै नै बुढावतो फागण। बूढो मिनख नीं सुहावै। सगळां रै आंख्यां आज्यै। पण बूढो पाळो आछो लागै। आखी जीयाजूण टाबर री भांत इण री गोदी खेलै। हाँसै। किल्लोळ करै।
फागण मनभावणो म्हीनो। इण रो मद छक कुदरत डुलै। पोह-माह री टूंट फागण में खुलै। निवाया दिन। ठंडी रात। हाथ में हाथ। बात में बात। चूंतर्यां पर गप्प। बाजता डफ। मारता उछाळ। गावता धमाळ। सिर पर होळी। भर-भर झोळी। खुसियां री ल्यायो है फागण।
मधरो-मधरो बायरियो चालै। रूंखां रा पत्ता हालै। भंवरा भणकै। धरती री पायल खणकै। दरख्तां पर पाखी बोलै। कानां में मिसरी घोळै। गयो सियाळो-आयो उन्हाळो। लोगड़ा बोलै।
पाळै रै हरेक रूप रा न्यारा-न्यारा नांव। न्यारा-न्यारा काम। पण सियाळै री रुत सिरमौर। एक लोकगीत में आपरै परदेसी पिया नै एक बिजोगण नार इण भांत कैवै-
तारीख- २३/१/२००९
सियाळै री रुत भली,
कोई परदेसां मत जाय
-रामस्वरूप किसान
कोई परदेसां मत जाय
-रामस्वरूप किसान
डांफर चीरै डील नै, चीरै रीळ कपाळ।
ठांठो-कोड़ो-कोढियो, दावो, लक्कड़-बाळ।।
पाळै रा अलेखूं रूप। जित्ता ई रूप, बित्ता ई नांव। ठारी, ठांठो, रट्ठ, कोढियो रट्ठ, रीळ, लूरी, डांफर, कोड़ो, दावो। दावो भी दोय भांत रो, आक दावो अर लक्कड़ दावो। पाळै री उमर च्यार म्हीना। मिंगसर जलमै। ऐ तीस दिन टाबरपणैं में बीतै। गांव री गळियां रमै। खेतां खेलै। अर वणराय में भंवै। बडो हुवै। बतळ चालै, ठारी आयगी। मीठी-मीठी ठारी। टाबर गांवता फिरै-ठांठो-कोड़ो-कोढियो, दावो, लक्कड़-बाळ।।
'पाळो लागै-सीयो लागै, धन-कुक्कड़ी।
धन्नै रो जंवाई आयो, रंध खिच्चड़ी। '
ओ आवतो पाळो बजै। जको सेध ई सकै। कैबा है कै पाळो आवतो सेधै का जावतो। यूंकै आवतो पाळो टाबर अर जावतो बूढो अर टाबर अर बूढै सूं आपां कम डरां। इंर् सारू बेसी बिसवास करां अर इं बिसवास पर मार खा बैठां। पछै फिरां सुरड़-सुरड़ करता। धांसता अर नाक पूंछता।धन्नै रो जंवाई आयो, रंध खिच्चड़ी। '
पाळो जद पोह में बड़ै, जवानी ढुळ-ढुळ पड़ै। बिरवां रा पान झड़ै अर काळा बांबी में बड़ै। जद ओ जमै माट अर घड़ै। डील में बिच्छू सा लड़ै। लोग बतळावै, दावो पड़ग्यो। आक दावो।
आक दावो पड़ै जद आक रा पानका बळै। अरण्ड अर सरस्यूं री खेती नै खतरो। लोग खेतां में जावै। सरसम री फळी ल्यावै। चीर-चीर उगाड़ में दिखावै, ऐ देखो रगड़ दिया। एक ई दाणो नीं छोड्यो। सगळां रो पांणी बणा दियो। मुरड़ांद आवै फळियां में। पाळै सूं सीजग्या दाणा। अब द्यो दरखास खराबै री।
लोग खराबै री दरखास देंवता फिरै। दूजी कानी पाळो आं सगळी बातां सूं बेखबर गे़ड चढण लागै। जोबन ऊफणै। आक दावै सूं लक्कड़ दावै पर आवै। लक्कड़ दावो सैं सू खतरनाक। कोढियो रट्ठ। कोझो को'ड़ो। जिकै में बूई-सिणिया अर छोटा-मोटा रूंख तकात भुळसीजै। देखतां-देखतां हर्यो रूंख लक्कड़ बणै। आखी रोही तुरड़ीज जावै। पूरी जमीं पर बरफ री चादर बिछ जावै। इस्यै रट्ठ में खेती रो कांइं माजणो। किरसा गरळावै, आज सरग्यो काम। इणनै कैवै पाळो। तुखम ई कोनी छोडी। लक्कड़ दावो पड़ग्यो।
पाळै रो ओ तांडव आधै माह तांई चालै। पूरी दुरळ मचावै। पछै तर-तर जोबन ढळै। जवानी रो नसो उतरै। आंख खोलै। च्यारूंमेर निरखै। आपरी करणी पर पछतावै अर सगळां रा घाव सै'लावै। बिरवां पर कूंपळ फोडै। टूटी वणराय जोडै। रोवतड़ा जीव हँसावै। धरती पर फूल खिलावै। अब पाळो बसंत कुहावै।
पाळै अर बूढै में उलटो संबंध। पाळो जद जुवान हुवै तो बूढो और ई बूढो। अर पाळो जद बूढो हुवै तो बूढो छक जवान। दोय दांत। खड़्या कान। पांख आज्यै। रग-रग नाचण लागै। सूत्योडो जोबन जागै। बोलो, है कांइं कसर? ओ रुत रो असर। आं नै कैवै रुत-रुत रा मेवा। कदे राकस तो कदे देवा।
पाळो बूढो हुग्यो। पाळै नै पाळो लागै। जाड़ बाजै। धूजणी छूटै। गळ में गोडा घाल रिजाई में बड़ग्यो पाळो। अर दूजी कानी? बो देखो बूढियो। रिजाई रै लात मार, मांची सूं कूद, हाथां में डफ झाल्यां खड़्यो है।
फागण आग्यो बेलियो! मदमावतो फागण। नाचतो-गावतो फागण। गुलाल उडावतो फागण। पाळै नै बुढावतो फागण। बूढो मिनख नीं सुहावै। सगळां रै आंख्यां आज्यै। पण बूढो पाळो आछो लागै। आखी जीयाजूण टाबर री भांत इण री गोदी खेलै। हाँसै। किल्लोळ करै।
फागण मनभावणो म्हीनो। इण रो मद छक कुदरत डुलै। पोह-माह री टूंट फागण में खुलै। निवाया दिन। ठंडी रात। हाथ में हाथ। बात में बात। चूंतर्यां पर गप्प। बाजता डफ। मारता उछाळ। गावता धमाळ। सिर पर होळी। भर-भर झोळी। खुसियां री ल्यायो है फागण।
मधरो-मधरो बायरियो चालै। रूंखां रा पत्ता हालै। भंवरा भणकै। धरती री पायल खणकै। दरख्तां पर पाखी बोलै। कानां में मिसरी घोळै। गयो सियाळो-आयो उन्हाळो। लोगड़ा बोलै।
पाळै रै हरेक रूप रा न्यारा-न्यारा नांव। न्यारा-न्यारा काम। पण सियाळै री रुत सिरमौर। एक लोकगीत में आपरै परदेसी पिया नै एक बिजोगण नार इण भांत कैवै-
मैं तनै कैवूं सायबा, कोई सियाळै भल आय।
सियाळै री रुत भली, कोई परदेसां मत जाय।।
आज रो औखांणो
सियाळो तो भोगी रो अर उन्हाळो जोगी रो।
सर्दियों की मौसम भोगियों के लिए आनन्दप्रद होती है तो गर्मी की तप्त मौसम योगियों के लिए उपयुक्त है, इसलिए कि साधना में विकार उत्पन्न नहीं होते। मनुष्यों के संदर्भ में प्रत्येक ऋतु की अलग-अलग उपादेयता होती है।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।
राजस्थानी रा लिखारां सूं अरज- आप भी आपरा आलेख इण स्तम्भ सारू भेजो सा!
सियाळै री रुत भली, कोई परदेसां मत जाय।।
आज रो औखांणो
सियाळो तो भोगी रो अर उन्हाळो जोगी रो।
सर्दियों की मौसम भोगियों के लिए आनन्दप्रद होती है तो गर्मी की तप्त मौसम योगियों के लिए उपयुक्त है, इसलिए कि साधना में विकार उत्पन्न नहीं होते। मनुष्यों के संदर्भ में प्रत्येक ऋतु की अलग-अलग उपादेयता होती है।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।
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