Tuesday, January 13, 2009

१४ रंग जाय पण रीत नीं जाय

आपणी भासा-आपणी बात
तारीख-१४/१/२००९

रंग जाय पण रीत नीं जाय

भासा ई सिरै आसा। भासा में ई मिनख अर समाज री जड़ हुवै। जिण भांत जड़ सूं कट्यां पे़ड अर पौधा कोनी पनपै, उणी भांत खुद री भासा सूं कट्यां मिनख अर समाज ई कुमळाय खूटै। आपां री मायड़भासा राजस्थानी, घणी रूड़ी-रूपाळी भासा। इण भासा रो सबद-भंडार भर्यो-पूरो। आपां इण री जाण करता रैस्यां। आज बांचां राजस्थानी में रंगां रा नांव-
अंगूरी, अबलख, अम्बुवा, असमांनी, आबनूसी, ऊदो, कइयां, ककरेजिया, कचनार, कत्थई, कपूरी, कबूतरी, कबरो, कमे़डी, कमैदी, कसकसी, कसूमळ, कसूमळ टीप, काचो केसरियो, काजळियो, काळो, कासणी, किरमिजी, कूंघसी, केसरिया, खाकी, गुलाबी, गुलैनार, गुळी, गूगळो, गेरुवों, गेहुंवो, गौरो, चंदणियो, चंपई, चटणिया, छितरिया, जरद, जवई, जामुनिया, टमाटरी, ढेडिया, तम्बाकू, तर गुलाबी, तोतई, तोरूंफू लो, दूधियो, धवळो, धानी, नारंगिया, नींबू वरणो, पचरंगी, पिस्तई, पीरोजी, पीळो, फाख्ता, फागणियो, फिरोजी, फूल गुलाबी, बसंती, बादळिया, बिदांमी, बैंगणी, बोतली, भूरो, भगवो, भाखरियो, भंगड़ू, मटमैलो, मटिया, मलागिरी, मूंगिया, मैंदी, मैणियां, मैरूनी, मोतिया, मोरकंठी, रतनार, रांणी, रातो, लाखी, लाल, लील गुलाबी, लीलो, सप्ताळू, सपेत, सरबती, सांवळो, सिन्दरूपी, सिन्दुरिया, सिलेटिया, सुनैरी, सुरमई, सूआपंखी, सोगिया, सोनलिया, सोसनी, हब्बासी, हरो, हळदिया, हींगळू, हीराकसी। आं रै अलावा रंगां रा कीं नांव आपनै भी ध्यान हुसी। भेजो सा।
अबार सुणो एक सांतरी-सी बात-
लारलै दिनां मनीराम ताऊ मांदा हा। उमर पा लीन्दी ही पूरी। बां नै टसकतां देख मिलण आया बां रा एक साथी अन्नारामजी बोल्या, ''भीया, किरको राखो किरको!" ताऊजी बोल्या, ''अब पार कोनी पड़ै, जांवतां गी बाजै।" तो अन्नारामजी बोल्या, ''कीं किरको राखो, हेरण किस्या घी खां हैं, घोडां सूं आगै जां हैं।" कई दिनां सूं म्हे इण बात री मूळ बात सोधै हा। आज लाधगी। आप भी सुणो सा!
हिरण किसा घी खाय
जोधपुर रा राव चूंडाजी नागौर जीत्यां पछै आपरै राज रो बंदोबस्त नूंवा राणीजी माथै छोड दियो। राणीजी खरचो कम करण री सोची। घोडां नै जको घी दिरीजतो, बो राणीजी बंद करवा दियो। जणां रावजी आपरी राणी सूं बोल्या-
कळह करै मत कामणी, घोडां घी देतांह।
आडा कदैक आवसी, वाढ़ाळी वहतांह।।
रावजी री इण बात रो पड़ूत्तर राणीजी यूं दियो-
आक बटूकै पवन भखै, तुरियां आगळ जाय।
म्हैं थनै पूछूं सायबा, हिरण किसा घी खाय।।
आज रो औखांणो
रंग जाय पण रीत नीं जाय
रंग भले ही मिट जाय पर रिवाज नहीं मिटता।
कच्चा-पक्का रंग देर-सबेर उड़ जाता है लेकिन परंपरागत रीति-रिवाजों की अवहेलना नहीं की जा सकती। वे नहीं मिटते।
वाढ़ाळी- तलवार, बटूकै - दांतों से काटकर खाने की क्रिया, तुरियां- घोडों
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।

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