आपणी भाषा-आपणी बात
तारीख- ९/२/२००९
डॉ. महेन्द्र भानावत रो जलम १३ नवम्बर, १९३७ नै कानोड़ (उदयपुर) में हुयो। देस-विदेस री लगैटगै 500 पत्र-पत्रिकावां में हिन्दी, अंग्रेजी अर राजस्थानी मांय खासकर राजस्थानी लोककला, लोकसाहित्य अर लोक-संस्कृति सूं संबंधित आपरी ८ हजार सूं बेसी रचनावां प्रकाशित। ७५ सूं बेसी पोथ्यां छपियोड़ी। भारतीय लोक-कला मंडल, उदयपुर रै निदेशक पद सूं सेवानिवृत्त।
होळी आवतां ई गांव-गांव अर गळी-गळी में चंग रा धमीड़ा गूंजण लागै। फाग गीतां रा बोल गम्मत करण लागै-
इण भांत चंग एक नीं बाजै। उठी नै लकड़ै रै घेरै आळो चंग घुरीजण लागै तो अठीनै तनड़ै रो चंग अर मनड़ै रो घु़डलो ढाब्यां ई नीं ढबै। चंग बजावता मोट्यार अर लूहर लेवती लुगायां लाल केसियो गावण लागै अर उणनै सुण'र मरदां रै हिवड़ै रा तार झणझणाट करण लागै।
चंग गीत रै सागै बाजै। निरत रै सागै ई बाजै। चंग री बणावट साव सादी। लकड़ी रै गोळ घेरै मांय भेड रो काचो चामड़ो मंड देवै। लकड़ी पांच-छ: इंच चौड़ी अर कोई तीन-च्यार सूत मोटी। मेथी रै आटै सूं घेरा रै माथै चामड़ो चैठाय दे। बस चंग त्यार। इणनै डफ भी कैवै।
राजस्थान में होळी रै मौकै चंग बजावण रो रिवाज सगळी थो। इणरै सागै गावण अर नाचण रो रिवाज पण सै ठोड़ प्रचलित। कठैई एकल चंग माथै तो कठैई अनेकूं चंगां माथै मोट्यार नाचै। होळी रै दिनां में न्यारी-न्यारी टोळियां आपरी मन मस्ती मुजब नाचती गावती निकळ जावै। चंग माथै जिको गीत गावीजै वै फाग बाजै। आं नै धमाळ भी कैवै। यां फागां में कई फगुवाई चालै। गीतां रै सागै-सागै कई दूहा ई चालै। मस्ती में आयोड़ा गेरिया जद मौज में आय'र चंग घुरावण लागै तो यां रो मिजाज देखतां ई बणै। आछो चंग बजावणियो जद अधओगड़ियो होय'र दोनूं पग जमीं माथै वाळ नै चंग साथळ माथै टिकावतां डाकै रै ठमकां सूं उणनै बजावण लागै तो एक समो बंध जावै। कई आछा बजावणिया कलाकार तेराताळी निरत करण आळी लुगायां रै ज्यूं जमीं माथै चंग रै ठपकां देता जावै अर शरीर सूं भाव दरसावता जावै।
राजस्थान में यूं तो अमूमन चंग आदमी'ज बजावै पण काळबेलिया इतयाद समाज री लुगायां होळी रै दिनां में टोळा बणा-बणाय'र गांव-गांव अर घर-घर निकळ जावै। इण वगत वै कई तरै रा गीत गावै अर धान-चून अनै पईसा टका भेळा करै। एक लुगाई चंग बजावै अर दूजी घूंघटो काढ्यां बीं रै ओळै-दोळै नाचै। बाकी री फाग गावै। लुगायां आळो चंग मरदां रै चंग सूं थोड़ो नैनो होवै। इणरी लकड़ी जाडी होवै। इण माथै खाल ई बकरी री मंडीजै। इण माथै गुलाबी रंग सूं भांत भांत रा चित्राम कोरीजै।
इण भांत चंग सगळां नै चंगा करै। मन गंगा करै। रंग रंगा करै। चंग री मस्ती में सगळा ई बावळा बण चंगभंग होय जावै। चंग रा धम्मीड़ा सुणतांई सगळा रा मन थिरकण लाग जावै। लुगायां घर गिरस्ती रा काम नै भूल'र चंग रंग में आपरा अंग अळसाय नांखै अर चंग माथै थाप पड़तांई गीतड़ा गूंजण लागै-
तारीख- ९/२/२००९
डॉ. महेन्द्र भानावत रो जलम १३ नवम्बर, १९३७ नै कानोड़ (उदयपुर) में हुयो। देस-विदेस री लगैटगै 500 पत्र-पत्रिकावां में हिन्दी, अंग्रेजी अर राजस्थानी मांय खासकर राजस्थानी लोककला, लोकसाहित्य अर लोक-संस्कृति सूं संबंधित आपरी ८ हजार सूं बेसी रचनावां प्रकाशित। ७५ सूं बेसी पोथ्यां छपियोड़ी। भारतीय लोक-कला मंडल, उदयपुर रै निदेशक पद सूं सेवानिवृत्त।
चंग जमावै रंग
डॉ. महेन्द्र भानावत, उदयपुर।
चंग राजस्थान री होळी रो मीठो, मादक अर मोवणो वाद्य यंत्र। रंगीलो बाजो। कई छैल भंवरिया होळी रा गेरिया बण'र चंग रै रंग में आपरो तन-मन रंग नाखै। चंग फगत होळी नै इज रंग नीं देवै, पण सगळां नै रंग नाखै। कई तौर-तरीकां सूं रंगै। कई तरै रा काचा-पाका रंगां सूं रंगै। चंग मानखै रो अंग-अंग रंगै। होळी नै हेलो मारै चंग। वो उणनै बधावै, नूंतै, ते़डै। होळी रो असली उमाव अर राग-रंग सरू करणियो मंगळ बाजो चंग, थाप हेठळ आवै कै होळी रो हरख मंड जावै। होळी रै एक महीनै पै'ली चंग रा धमीड़ा उडणा मांडै सो ठेट रंग पांचम तांई उडता ई रैवै।डॉ. महेन्द्र भानावत, उदयपुर।
होळी आवतां ई गांव-गांव अर गळी-गळी में चंग रा धमीड़ा गूंजण लागै। फाग गीतां रा बोल गम्मत करण लागै-
चंग जमावै रंग मरदां। पिचकारयां रै संग, आई होळी रे।
चंग जमावै रंग मरदां! खेलो भाठा जंग, होळी आई रे।
चंग जमावै रंग मरदां! मस्ती भरिया अंग, आई होळी रे।
चंग जमावै रंग मरदां! फागण नंग धड़ंग, होळी आई रे।
चंग होळी नै हुलरावै। मिनखां नै मुळकावै। चंग री मस्ती सूं रोम-रोम नाचण लाग जावै। ज्यूं कुदरत रो अंग-अंग मौसम आयां बदळै, उणीज भांत चंग रो डाको लागतां ई फागण रो वायरो फर्राटा मारवा लागै। अंग-अंग में कई रंग राग रा रणकोल्या, कणकोल्या चालवा लागै। तनड़ा सागै मनड़ो ई झूमण लागै। बासंती बयार अर फूल्योड़ी सरसूं धरती माथै रंग बिखेरण लागै। होळी रो हु़डदंग मनड़ै रो हरख उमाव प्रगट करण लागै।चंग जमावै रंग मरदां! खेलो भाठा जंग, होळी आई रे।
चंग जमावै रंग मरदां! मस्ती भरिया अंग, आई होळी रे।
चंग जमावै रंग मरदां! फागण नंग धड़ंग, होळी आई रे।
इण भांत चंग एक नीं बाजै। उठी नै लकड़ै रै घेरै आळो चंग घुरीजण लागै तो अठीनै तनड़ै रो चंग अर मनड़ै रो घु़डलो ढाब्यां ई नीं ढबै। चंग बजावता मोट्यार अर लूहर लेवती लुगायां लाल केसियो गावण लागै अर उणनै सुण'र मरदां रै हिवड़ै रा तार झणझणाट करण लागै।
चंग गीत रै सागै बाजै। निरत रै सागै ई बाजै। चंग री बणावट साव सादी। लकड़ी रै गोळ घेरै मांय भेड रो काचो चामड़ो मंड देवै। लकड़ी पांच-छ: इंच चौड़ी अर कोई तीन-च्यार सूत मोटी। मेथी रै आटै सूं घेरा रै माथै चामड़ो चैठाय दे। बस चंग त्यार। इणनै डफ भी कैवै।
राजस्थान में होळी रै मौकै चंग बजावण रो रिवाज सगळी थो। इणरै सागै गावण अर नाचण रो रिवाज पण सै ठोड़ प्रचलित। कठैई एकल चंग माथै तो कठैई अनेकूं चंगां माथै मोट्यार नाचै। होळी रै दिनां में न्यारी-न्यारी टोळियां आपरी मन मस्ती मुजब नाचती गावती निकळ जावै। चंग माथै जिको गीत गावीजै वै फाग बाजै। आं नै धमाळ भी कैवै। यां फागां में कई फगुवाई चालै। गीतां रै सागै-सागै कई दूहा ई चालै। मस्ती में आयोड़ा गेरिया जद मौज में आय'र चंग घुरावण लागै तो यां रो मिजाज देखतां ई बणै। आछो चंग बजावणियो जद अधओगड़ियो होय'र दोनूं पग जमीं माथै वाळ नै चंग साथळ माथै टिकावतां डाकै रै ठमकां सूं उणनै बजावण लागै तो एक समो बंध जावै। कई आछा बजावणिया कलाकार तेराताळी निरत करण आळी लुगायां रै ज्यूं जमीं माथै चंग रै ठपकां देता जावै अर शरीर सूं भाव दरसावता जावै।
राजस्थान में यूं तो अमूमन चंग आदमी'ज बजावै पण काळबेलिया इतयाद समाज री लुगायां होळी रै दिनां में टोळा बणा-बणाय'र गांव-गांव अर घर-घर निकळ जावै। इण वगत वै कई तरै रा गीत गावै अर धान-चून अनै पईसा टका भेळा करै। एक लुगाई चंग बजावै अर दूजी घूंघटो काढ्यां बीं रै ओळै-दोळै नाचै। बाकी री फाग गावै। लुगायां आळो चंग मरदां रै चंग सूं थोड़ो नैनो होवै। इणरी लकड़ी जाडी होवै। इण माथै खाल ई बकरी री मंडीजै। इण माथै गुलाबी रंग सूं भांत भांत रा चित्राम कोरीजै।
इण भांत चंग सगळां नै चंगा करै। मन गंगा करै। रंग रंगा करै। चंग री मस्ती में सगळा ई बावळा बण चंगभंग होय जावै। चंग रा धम्मीड़ा सुणतांई सगळा रा मन थिरकण लाग जावै। लुगायां घर गिरस्ती रा काम नै भूल'र चंग रंग में आपरा अंग अळसाय नांखै अर चंग माथै थाप पड़तांई गीतड़ा गूंजण लागै-
चंग रो घम्मीड़ो म्हैं तो रोटी खातां सुण्यो ओ
रोटी खातां पांतरगी में चाली आई सा।
चंग धीमो रे।
रोटी खातां पांतरगी में चाली आई सा।
चंग धीमो रे।
आज रो औखांणो
चंग टाळ भलां होळी कद मनाइजै?
चंग के बगैर भला होली कब मनाई जाती है?
जो एक दूसरे के पूरक होते हैं, उन्हीं का मेल हमेशा शोभनीय होता है।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।
email- aapnibhasha@gmail.com
blog- aapnibhasha.blogspot.com
राजस्थानी रा लिखारां सूं अरज- आप भी आपरा आलेख इण स्तम्भ सारू भेजो सा!
चंग टाळ भलां होळी कद मनाइजै?
चंग के बगैर भला होली कब मनाई जाती है?
जो एक दूसरे के पूरक होते हैं, उन्हीं का मेल हमेशा शोभनीय होता है।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।
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राजस्थानी रा लिखारां सूं अरज- आप भी आपरा आलेख इण स्तम्भ सारू भेजो सा!
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