Wednesday, May 13, 2009

१४ लोक काव्य मांय सरस संवाद

आपणी भाषा-आपणी बात
तारीख- १४//२००९

लोक काव्य मांय सरस संवाद

-डॉ. भगवतीलाल शर्मा, जोधपुर।

बुढापो कांई आयो, सिंघ रै विकास रा जांदा पड़गा। चटोकड़ी जीभ अर लबूरका लेवती आकळ-बाकळ आंतां नै पाथर तो परोसीजै कोनी। व्ही पण व्ही। सेवट वो साधूपणो धारण कर छळ-छंद सूं पेट पाळण ढूको। भावेजोग एक दिन एक बांदरो इण भगवाधारी सिंघ नै पूछियो-
नीं कांटो नीं खोबड़ो, फूंक-फूंक दे पांव।
बंदर पूछ्यो सिंघजी, तेरो कौण सभाव?
सिंघ जाणियो कै आज सुगन चौखा। बांदरा रो मांस! जीभ झरण लागी। कपट-भाव सूं फट आतमा री एकरूपता रो बखाण करतो ई बोल्यो-
जैसी अपणी आतमा, तैसा दध में घीव।
थोड़ा दिन रै कारणै, मत मर जावै जीव।।
बांदरो सभाव रो भोळो। आंबा (आम) रा रूंख सूं उतरतो इज व्हियो अर मीठा-गटाक आंबा सिंघ नै निजर कर, पगां पड़ियो-
बंदर ब्रख सूं ऊतर्यो, आंब निजर किय आय।
पैली परदिखणा करी, पड़्यो सिंघ रै पाय।।
सिंघजी तो ताक में हा इज। आव देखियो न ताव। फट बांदरा नै झांप लियो। बांदरो बखड़ी में झिलियो, पण झिलियो। कै़डी बेजां व्ही! पण हो थोड़ो पाटक। ऐकाऐक हँसणो मांडियो। सिंघ इजरज सूं पूछियो-
पड़्यो काळ री डाढ में, हाँसी आई काय?
सिंघ पूछियो बंदरा, इण रो भेद बताय।।
बांदरै सिंघ नै लाळच दियो-
बंदर कहियो सिंघ नै, उरलो छोडै मोय।
तीन लोक री वारता, कहै सुणावूं तोय।।
इण माथै सिंघ थोड़ी ढील दी, कै तचाक, बांदरो उचक'र सीधो डाळ माथै। पण वठै बैठ'र ई वो रोवण लागगो। सिंघ फेरूं इचरज सूं पूछियो-
ऊंचै तरवर बैठकर, नैणां डारत नीर।
सिंघ कह्यो अब बांदरा, थारै कुणसी पीर?
बांदरो इण कळजुग मांय छळ-छद्म सूं भरियोड़े साधूपणा माथै निसांसां नांखतो कह्यो-
तुमसे कळि में साधु हों, हम रोवत हैं ताहि।
हम तो छूटे फंद तैं, और फंदैगे आहि।।
ओ दिस्टांत है 'नाहर-बंदर' रै संवाद रो, जिण मांय कळजुग रा कपटी साधुवां रो खाको खींचीजियो है। आपणी भाषा राजस्थानी मांय एड़ा मोकळा संवाद चलै। अमलदार री अर साद री लुगाई रो संवाद, सुमत-कुमत संवाद, मोती-कपास संवाद, गुरु-चेला संवाद, दातार-सूर रो संवाद, जीभ-दांत संवाद, भांग-अमल संवाद, पंडित-मुल्ला संवाद, पीर-मुरीद संवाद, चावळ-बाजरी संवाद, दुरबळ-सबळ संवाद, करम-धरम संवाद, पति-पत्नी संवाद, सोना-चिरमी संवाद, गाय-नाहर संवाद, गुण-माया संवाद, नणद-भोजाई संवाद, बाप-बेटा संवाद इत्याद। आपरै आसै-पासै बू़ढा-बडेरां कनै अजे ई मोकळो सामान है। फुरसत री वेळा आप भी अंवेर सको। आओ, आपां सगळा मिल परा आपणी भाषा री ऐ सांतरी-सांतरी बातां भेळी करां।

आज रो औखांणो

सिंघ कद छाळियां नै जीवती छोडै
सिंह कब बकरियों को जीवित छोड़ता है।
दुष्ट किसी का सगा नहीं होता। उसे जब मौका मिलता है वह गरीब को नोचने की चेष्टा करता है।

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