Tuesday, 06 Dec 2011 9:13:21 hrs IST
वैश्वीकरण और विदेशी कम्पनियों के लिए भारत का बाजार खोल देने के वर्तमान परिदृश्य के दौरान मातृभाषा में प्राइमरी स्कूल स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने पर विचार-विमर्श करना समाप्त सा कर दिया गया है। ग्रामीण इलाकों में कान्वेंट स्कूल तेजी से बढ़ रहे हैं और इनकी स्वीकार्यता भी बढ़ रही है लेकिन क्या हमारे पास इस रूझान के समर्थन में कोई वैज्ञानिक डाटा है या यह भी कि हम मातृभाषा में अपने बच्चों को विवेकवान और बुद्धिमान बनाने वाली ऎसी शिक्षा प्रदान कर सकते हैं जो उन्हें मौलिक रूप से मजबूत व्यक्तित्व का मालिक बना सके, उनकी दक्षता और रचनात्मकता, सृजनात्मकता को बेहतर प्रेरणा दे सके। इसमें से बाद वाले विवादित मुद्दे के समर्थन में वैज्ञानिक साक्ष्य मौजूद हैं।
मानव विकास के क्रम में भाषा का एक विशिष्ट अधिकार है, उसकी अधिमानता है और वरीयता है। मानव मस्तिष्क में भाषा विज्ञान के ढेर सारे 'जोन' होते हैं। मस्तिष्क का यही जोन उसका वर्गभेद करते हैं। यही भाग व्यक्ति के ज्ञान, समझ, विभेद, निर्णय लेने की क्षमता, आत्मिक और धार्मिक प्रवृत्ति में सहायक होता है और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण निर्माण होता है और उसमें बहुत बड़ी भाषायी दक्षता पनपती है।
व्यक्ति जो भाषा अपने परिवार में बोलता है, जिस भाषा में अपने संदेशों को संप्रेषित करता है अथवा जो भाषा स्थानीय समुदाय में प्रभावशाली होती है, उसमें अगर कोई अनुदेश या उपदेश दिया जाता है तो उसके कई फायदे होते हैं। मानव मस्तिष्क मातृभाषा में दिए गए संदेश को ग्रहण करने के प्रति काफी संवेदनशील होता है। शिष्य भी ज्यादा संवादात्मक रूख अपनाते हैं और सवाल-जवाब करने में दिलचस्पी लेते हैं।
अमरीकी भाषाविद् और दार्शनिक नॉम चोमस्की, जिनकी ख्याति भाषा विज्ञान में सबसे बड़े योगदानकर्ता के रूप में है, का कहना है कि बच्चे में भाषायी और व्याकरण सम्बन्धी समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं। अर्थात सहज और स्वाभाविक व्याकरण संकेत देती है आनुवांशिक संवेदनशीलता का। विद्यार्थियों को ऎसी भाषा में निर्देश या उपदेश, जो उनकी समझ में न आए, ठीक उसी तरह है जिस तरह तैराकी सिखाए बिना ही व्यक्ति को पानी में कूदने को कह दिया जाए, ऎसे में वह कैसे तैरेगा? ख्यातिलब्ध विद्वानों का कहना है कि ऎसे लोग जो अपनी पैदायशी भाषा में शिक्षा नहीं ग्रहण करते हैं, उन्हें सीखने में ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और उनमें बीच में स्कूल छोड़ने की दर भी ज्यादा होती है। दूसरी बात यह कि असंतोषजनक से ढंग से प्रशिक्षित अध्यापक को विदेशी भाषा पढ़ाने में काफी दिक्कत आती है और उनमें आत्मविश्वास भी नहीं रहता अपेक्षाकृत मातृभाषा में अध्यापन करने के। इससे हालात बदतर ही होते हैं।
इसके अलावा स्नायु कोशिकाओं के जो विशेष तरह के झुंड हैं और जिन्हें मस्तिष्क में न्यूरॉन प्रतिबिम्ब के रूप में जाना जाता है, वे घर या समाज में बोली जाने वाली भाषा को तुरन्त ही पकड़ लेते हैं और संकेतों को भी ग्रहण कर लेते हैं। वे मातृभाषा में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा को भी जल्द ही समझ लेते हैं। इस प्रकार मातृभाषा में शिक्षा देना ज्यादा आसान और स्थाई होता है। तीव्र गति से याद करना भी आसान रहता है। इससे मानव के व्यक्तित्व को मजबूत बनाने में मदद मिलती है।
यहां यह समझ लेना भी रूचिकर है कि एक बार यदि मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण कर ली गई तो दूसरी भाषा को समझने की यह बेहतर विधा है। इस प्रकार मातृभाषा में जो हमारी दक्षता है, वह धीरे-धीरे ज्यादा प्रभावशाली तरीके से दूसरी भाषा में प्रवीणता हासिल कर सकती है।
डॉ. अशोक पानगडिया
न्यूरोलॉजिस्ट और राज्य आयोजना बोर्ड के सदस्य
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