तारीख-१/३/२००९
गळगचिया
कन्हैयालाल सेठिया राजस्थानी रा नांमी लिखारा। हिन्दी, उर्दू अर अंगरेजी मांय भी आप मोकळो लिख्यो। आपरो जलम 11 सितम्बर, 1919 नै सुजानगढ़ मांय हुयो। कलकत्ता बस्या अर मायड़भासा साहित्य रो भण्डार भरयो। 11 नवम्बर, 2008 नै आप चल बस्या। राजस्थानी लोक मांय भी आपरी रचनावां घणी चावी। 'पातळ'र पीथळ', 'धरती धोरां री' आद कवितावां जगचावी। आं री रचनावां में राजस्थानी माटी री मीठी सौरम आवै। आपरी कवितावां में भाव, भासा, चिंतन अर दरसण री गंभीरता खास रूप सूं उल्लेखजोग है।'गळगचिया' आपरी चिंतन प्रधान गद्य-काव्यमयी रचना। आ रचना 1960 ई। में छपी। इण में चौसठ गद्य-काव्य हैं। आं गद्य गीतां मांय कवि लोकजीवण रा न्यारा-न्यारा चितरामां नै मिनख जीवण सूं जोड़या है। कई सवालां रा जवाब जिका दरसण सूं समझणा भी अबखा हुय जावै कवि आं रै मारफत सरल सरूप में समझावण री कोसिस करी है।
'गळगचिया' नदी रा चिकणा अर गोळ पत्थरां नै कैवै। ऐ पत्थर देखण में अर परसण में घणा व्हाला लागै। इण वास्तै ई स्यात आं प्यारी-प्यारी रचनावां रो नांव कवि गळगचिया राख्यो। भूमिका रूप में कवि 'परचो' सिरैनांव सूं फगत दो वाक्य मांड्या है- ''मन रो अचपळो बाळकियो विचार री गंगा स्यूं ऐ गळगचिया छाँट छाँट'र चुग्या है। आं में किस्यो गळगचियो शिव है'र किस्यो गळगचियो लोढो है ईं री पिछाण तो पारखी ही कर सकैला।''
तो आओ, आज बांचां कीं गळगचिया।
(1)
मैणबत्ती कयो- डोरा, मैं थारै स्यूं कत्तो मोह राखूं हूं ? सीधी ही काळजै में ठोड़ दीन्ही है।डोरो बोल्यो- म्हारी मरवण, जणां ही तो तिल तिल बळूं हूँ।
(2)
तांबै रै कळसै माटी रै घड़ै नै कैयो- घड़ा, थारै में घाल्योड़ो पाणी ठंडो किंया रवै'र म्हारै में घाल्योड़ो तातो कियां हुज्यावै?घड़ो बोल्यो- मैं पाणी नै म्हारै जीव में जग्यां द्यूं हूँ'र तूं आंतरै राखै, ओ ही कारण है।
(3)
पानड़ां कयो- डाळां, म्हे नहीं हूंता तो थे कत्ती अपरोगी लागती?फूल कयो- पानड़ां, म्हे नहीं हूंता तो थे कत्ता अडोळा लागता?
फळ कयो- फूलां, म्हे नहीं हूंता तो थांरो जलम ही अकारथ जातो?
फळ में छिप'र बैठ्यो बीज सगळां री बात सुण'र बोल्यो- भोळां, मैं नहीं हूंतो तो थे कोई कोनी हूंता।
आज रो औखांणो
कीरत हंदा कोटड़ा, पाड़्यां नांह पड़ंत।
कीर्ति के गढ़-कांगुरे कभी नहीं ढहते।
पत्थर से बने कैसे भी मजबूत गढ़-किले व स्मारक समय के हाथों ध्वस्त हो जाते हैं पर आदर्श पुरुषों की कीर्ति व यश के महल सदा अक्षुण्ण रहते हैं।
पूरा दोहा इस प्रकार है-
नांव रहसी ठाकुरां, नांणौ नांह रहंत।
कीरत हंदा कोटड़ा, पाड़्यां नांह पड़ंत।।
मैणबत्ती-मोमबत्ती, नांणो-रिपिया।
कीरत हंदा कोटड़ा, पाड़्यां नांह पड़ंत।
कीर्ति के गढ़-कांगुरे कभी नहीं ढहते।
पत्थर से बने कैसे भी मजबूत गढ़-किले व स्मारक समय के हाथों ध्वस्त हो जाते हैं पर आदर्श पुरुषों की कीर्ति व यश के महल सदा अक्षुण्ण रहते हैं।
पूरा दोहा इस प्रकार है-
नांव रहसी ठाकुरां, नांणौ नांह रहंत।
कीरत हंदा कोटड़ा, पाड़्यां नांह पड़ंत।।
मैणबत्ती-मोमबत्ती, नांणो-रिपिया।