Thursday, January 12, 2012

जनवरी २०१२ री खबरां





Thursday, January 5, 2012

मातृभाषा के पीछे चले अंग्रेजी


English Medium 

-विश्वमोहन तिवारी
   शिक्षा के माध्यम के विषय में आम आदमी की क्या सोच है? शिक्षा का माध्यम वह हो जिसमें अच्छी और सम्पूर्ण शिक्षा मिले, जो जीवन में काम आए।
   अब अच्छी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों में मिलती है, तो हर अभिभावक उन्हीं स्कूलों में, उसी भाषा में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाना चाहेंगे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पुस्तकें हिन्दी में नहीं है, पढ़ाने वाले भी नहीं हैं, जबकि अंग्रेजी में ये दोनों चीजे उपलब्ध हैं। एक तरफ अंग्रेजी से मजबूर आम आदमी है तो दूसरी तरफ कुछ आदर्शवादी लोग हैं जो जीवन मूल्यों की दुहाई देते हुए मातृभाषा को अपनाने की बात करते हैं। उनकी आलोचना यह कहकर की जाती है कि मतलब जीवन मूल्य सीखने से है, चाहे जिस किसी भाषा में सीख लें। साथ ही उन पर आरोप लगाया जाता है कि वो ये नहीं देखते या देखना चाहते कि पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनकी सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें?
   लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि अंग्रेजी माध्यम से हमें पाश्चात्य जीवन मूल्य और सभ्यता ही मिलेगी। जो हमें तथाकथित सफलता तो देगी लेकिन सुख और शांति का हमारे जीवन से लोप हो जाएगा। पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है। भोगवादी सभ्यता में प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, परिवार का प्रत्येक सदस्य भी। इस तरह का परिवार और समाज भौतिक उन्नति तो करता है किन्तु विखंडित हो जाता है।
   अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा के अपने कुछ फायदे है और कुछ नुकसान। यही बात भारतीय भाषाओं पर भी लागू होती है। ऐसी स्थिति में हमें देखना चाहिए कि किसके नुकसान कम हैं और फायदे ज्यादा। साथ ही हमारी अपेक्षाओं की पूर्ति किस माध्यम से पूरी होंगी। शिक्षा का जो माध्यम हमारी सोच, हमारे समाज के आदर्श और हमारी जरूरतों के अनुरूप हो उसे ही अपनाना चाहिए।
   इस आधार पर विदेशी भाषा के मुकाबले अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करना अधिक लाभदायक और उचित है। शिक्षा का एक अहम् उद्देश्य है मानव में नैतिक मूल्य का बीजारोपण करना। चूंकि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाहन उस संस्कृति की भाषा  है। इसलिए जिस संस्कृति को हम बच्चों के लिए उचित मानते हैं उस संस्कृति को सम्पूर्णता से व्यक्त करने वाली भाषा ही शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति बच्चों में पनपेगी और भारतीय भाषाओं में दी गई शिक्षा से भारतीय संस्कृति बच्चों पर अपना असर डालेगी।
   पहले ही बताया जा चुका है कि पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय संस्कृति लाख गुना बेहतर है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति  सुख का भ्रम देती है और भारतीय संस्कृति सच्चा सुख देती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी श्रेष्ठ संस्कृति खो रहे हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के वाहक अपनी मातृभाषाओं को छोड़ कर भोगवादी भाषा अंग्रेजी अपना रहे हैं।
   एक बार गुजरात के तत्कालीन शिक्षामंत्री आनन्दी बेन ने कहा था, ”अंग्रेजी का ज्ञान विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता है। हमारे विद्यार्थी उच्चशिक्षा के लिये विदेश जाएं, यह आवश्यक है।” ऐसे विद्यार्थी दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं होंगे जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाते हों। फिर उन थोड़े से विद्यार्थियों के लिए 99 प्रतिशत विद्यार्थियों पर अंग्रेजी थोपना कहां तक उचित है। लेकिन अंग्रेजी के पक्ष में शिक्षा मंत्री के तर्क की तरह के अनेक अधपके तर्क दिये जाते हैं, और देश उन्हें स्वीकार भी कर रहा है।
   पहले कान्वेंट स्कूलों में मातृभाषाओं का तिरस्कार होता रहता था, अब तो पब्लिक स्कूलों में भी डंके की चोट पर मातृभाषाओं की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। यह कैसा भारतवर्ष है! गणित तथा विज्ञान को समझने के लिये मातृभाषा ही सर्वोत्तम माध्यम है, ऐसा प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रोफेसर कोठारी सहित अनेक विद्वानों ने बार-बार कहा है। लेकिन फिर भी अंग्रेजी ही अंग्रेजी नजर आती है हर जगह, कैसी विडंबना है यह।
   1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता के पश्चात की पीढ़ी ने अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन् विकास के लिये भी पश्चिम के अनुकरण को ही अनिवार्य मान लिया। महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़तापूर्वक कहते हैं, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’
   नेहरू ने गांधी के गहन गंभीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। नेहरू तथा अन्य अदूरदर्शी नेताओं द्वारा स्वीकृत अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवन मुल्यों को बढ़ाने का माध्यम बनी। उसने भोगवाद तथा अहंवाद को बढ़ावा दिया। मानसिक गुलामी पैदा की जिसका प्रभाव टेलीविजन  इत्यादि माध्यमों ने इतना तेज कर दिया कि अब वो विकराल रूप धारण करती जा रही है।
   यदि आप किसी भारतीय ब्राउन साहब से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है, तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार के युग में जी रहे थे। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया। हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया, हमारी भाषाएं इस मामले में नितान्त अशक्त थीं।
   अंग्रेजी का गुणगान करने वाले ऐसे लोग इस बात को नजरअंदाज कर जाते हैं कि अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ते हुए हमें सौ वर्षों से अधिक हो गए हैं लेकिन हमें कुल एक नोबेल पुरस्कार मिला है। वहीं साठ लाख की आबादी वाले देश इजराइल ने 1948 से अपनी शिक्षा का माध्यम यहूदी रखते हुए 11 नोबेल पुरस्कार जीत लिये हैं। गुलामी के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टाकहोम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामी की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टाकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं।
   वैश्वीकरण के अनेक परिणामों में एक है प्रवासियों का महत्वपूर्ण संख्या में विदेशों में अचानक निवास करने लगना। कनाडा के टोरन्टो शहर के किन्डरगार्टन में पढ़ रहे विद्यार्थियों में 58 प्रतिशत बच्चे ऐसे देशों से आए हैं जहां की आम भाषा अंग्रेजी नहीं है। इस देश के फासिस्ट प्रवासियों को या तो निकालना चाहते हैं या उन्हें मुख्यधारा से बाहर रखना चाहते हैं। और कुछ उदार समुदाय उन्हें मुख्यधारा में पूरी तरह समाहित करना चाहते हैं। उदारवादी नहीं चाहते कि प्रवासी विद्यार्थी अपनी भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करें। उन्हें कक्षाओं में अपनी भाषाओं में बात करने के लिये प्रोत्साहित नहीं किया जाता क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता है कि तब वे प्रवासी बच्चे मुख्यधारा से जुड़ने में कम सक्षम होंगे।
   कनाडा में आप्रवासियों को शिक्षा उनकी भाषा में दी जाए कि राजभाषा अंग्रेजी और फ्रेन्च में, इस मुद्दे पर काफी बहस चली है। कई शोध भी हुए हैं। विद्वान कमिन्स, बेकर तथा स्कुटनाबकंगस ने मिलकर इस विषय पर बहुत गहरा अनुसंधान कर कुछ निष्कर्ष निकाले जिनकी चर्चा करना जरूरी है। उनके निष्कर्ष कुछ इस प्रकार थे-
1. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के तहत बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा न देना मानवाधिकारों का हनन है।
2. द्विभाषी बच्चों की मातृभाषा उनके समग्र विकास तथा शैक्षिक विकास के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है।
3. जब बच्चे दोनों भाषाओं में विकास करते रहते हैं तब उन्हें भाषाओं तथा उनके उपयोग की गहरी समझ हो जाती है।
4. द्विभाषी बच्चों के विचार करने की पद्धति अधिक नमनीय हो सकती है।
5. जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं, वे दूसरी भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं। क्योंकि जो भी बच्चों ने अपने घर में अपनी मातृभाषा में सीखा है वह ज्ञान, वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सहज ही तैर जाते हैं। अर्थात मातृभाषा के उपयोग को  रोकना बच्चे के विकास में सहायक नहीं होता।
6. शिक्षण संस्थान में किसी भी बच्चे की मातृभाषा को ठुकराने से बच्चों को यह संदेश भी चला जाता है कि अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी संस्कृति भी संस्थान के बाहर छोड़कर आएं। तब बच्चे अपनी अस्मिता और अपने संस्कारों का कुछ हिस्सा भी बाहर छोड़ आते हैं।
   उपरोक्त अनुसंधान से एक महत्वपूर्ण निर्णय निश्चित रूप से निकलता है कि मातृभाषा में शिक्षा तथा उसका सम्मान अत्यंत आवश्यक है। ऐसा
नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखनी चाहिये, अवश्य सीखनी चाहिए। लेकिन उसे एक उपयोगी-विदेशी भाषा की तरह ही सीखना चाहिए।
   भारत में जो शिक्षा प्राथमिक स्तर में, और महानगरों में तो नर्सरी से, अंग्रेजी माध्यम में दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान
है। अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा की तरह सीखना तो पांचवीं कक्षा से प्रारंभ किया जा सकता है। नर्सरी या पहली कक्षा से ही अंग्रेजी शुरू करने
पर अंग्रेजी सीखने में अधिक कठिनाई होगी क्योंकि बच्चा मातृभाषा में सीखे ज्ञान, अवधारणाओं तथा कौशल को अन्य भाषा में ढालता है। अतएव
अंग्रेजी की शिक्षा दो चार कदम पीछे ही रहनी चाहिए। पूर्ण शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही रहनी चाहिए। कुछ विद्यार्थियों को शिक्षा अंग्रेजी माध्यम
में दी जा सकती है। ऐसी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से बारहवीं कक्षा के बाद ही प्रारंभ करनी चाहिए। क्योंकि मातृभाषा की पर्याप्त निर्मिति तथा
संस्कृति मस्तिष्क तथा हृदय में समुचित रूप से बैठने में 15 से 16 वर्ष लगते हैं।
   भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में
सशक्त होने के लिए उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार
है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते
हैं। जिस भाषा में जीवन गुजारा जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं और उसी भाषा में आविष्कार आदि हो सकते हैं। इसलिए नौकरी के
लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वालों से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, आखिर इजरायल जो कि हमारे देश का दसवां
हिस्सा भी नहीं है, विज्ञान में हमसे दस गुने नोबेल पुरस्कार ले जाता है उसका कारण यही है कि उसने अपने बच्चों को मातृभाषा में शिक्षित
किया।
   इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आपका, आपके बच्चों का और इस देश का विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा
मातृभाषा में ही देनी चाहिए।  ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मातृभाषा में पढे बच्चे पीछे रह जाते हैं। सुभाष चन्द्र बोस का उदाहरण हमारे सामने है।
सुभाष चंद्र बोस को उनके पिता ने अंग्रेजी माध्यम में भर्ती करवाया था। कुछ ही दिनों में सुभाष ने स्वयं ही अपना प्रवेश बंगला भाषा के
माध्यम वाली पाठशाला में करवा लिया था। बांग्ला भाषा में शिक्षित सुभाष ने न केवल आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की वरन् एक अनोखे
क्रान्तिकारी भी बने। इससे यह सिद्ध होता है कि मातृभाषा ही शिक्षा को श्रेष्ठ माध्यम है।

मातृभाषा में शिक्षा का महत्व

मातृभाषा में शिक्षा का महत्व

लेखक: जगमोहन सिंह राजपूत -एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं.
एक प्रबंधन संस्थान में एक युवा प्रशिक्षणार्थी आत्महत्या कर लेता है। वह इसका कारण लिख कर छोड़ जाता है कि कमजोर अंग्रेजी के कारण उसे हास्यास्पद स्थितियों से गुजरना पड़ रहा था, जो असहनीय हो गया था। ऐसी ही एक अन्य घटना में विद्यार्थी इसी कारण से तीन महीने तक विद्यालय नहीं जाता है। घर पर सब अनभिज्ञ हैं और जानकारी तब होती है जब वह गायब हो जाता है। ऐसी खबरें अगले दिन सामान्यत: भुला दी जाती हैं। इस प्रकार का चिंतन-विश्लेषण कहीं पर भी सुनाई नहीं पड़ता है कि आज भी अंग्रेजी भाषा का दबाव किस कदर भारत की नई पीढ़ी को प्रताडि़त कर रहा है। सच तो यह है कि आजादी के बाद मातृभाषा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान का जो सपना देखा गया था अब वह सपना दस्तावेजों, कार्यक्रमों तथा संस्थाओं में दबकर रह गया है। कुछ दु:खांत घटनाएं संचार माध्यमों में जगह पा जाती हैं। समस्या का स्वरूप अनेक प्रकार से चिंताग्रस्त करने वाला है।
देश में लाखों ऐसे स्कूल हैं जहां केवल एक मानदेय प्राप्त अध्यापक कक्षा एक से पांच तक के सारे विषय पढ़ाता है। क्या ये बच्चे कभी उनके साथ प्रतिस्पर्धा में बराबरी से खड़े हो पाएंगे जो देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं? आज उपलब्धियों के बड़े आंकड़े सामने आते हैं कि 21 करोड़ बच्चे स्कूल जा रहे हैं, 15 करोड़ मध्याह्न भोजन व्यवस्था से लाभान्वित हो रहे हैं, स्कूलों की उपलब्धता लगभग 98 प्रतिशत के लिए एक किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध है आदि। यही नहीं, अधिकांश राज्य सरकारें अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था कक्षा एक या दो से कर चुकी हैं और इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाती भी हैं। आज अगर भारत के युवाओं से पूछें तो वे भी यही कहेंगे- अगर उनकी अंग्रेजी अच्छी होती या फिर वे किसी कान्वेंट या पब्लिक स्कूल में पढ़े होते तो जीवन सफल हो जाता। आजादी के बाद के पहले दो दशकों में पूरी आशा थी कि अंग्रेजी का वर्चस्व कम होगा। हिंदी के विरोध के कारण सरकारें सशंकित हुई जिसका खामियाजा दूसरी भारतीय भाषाओं को भुगतना पड़ रहा है। तीन-चार दशक तो इसी में बीते कि अंग्रेजी ेमें प्रति वर्ष करोड़ों बच्चे हाईस्कूल परीक्षा में फेल होते रहे।
प्रतिवर्ष जब शिक्षा का नया सत्र प्रारंभ होता है तब दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में प्लेस्कूल, नर्सरी तथा केजी में प्रवेश को लेकर राष्ट्रव्यापी चर्चा होती है, लेकिन दिल्ली के भवनविहीन, शौचालय विहीन, पानी-बिजली विहीन स्कूलों पर कभी चर्चा नहीं होती। प्रवेश के समय जिन पब्लिक स्कूलों की चर्चा उस समय सुर्खियों में रहती है उसका सबसे महत्वपूर्ण कारक एक ही होता है-वहां अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दी जाती है। और जहां अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाएगी, श्रेष्ठता तो वहींनिवास करेगी। अंग्रेज, अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत के समक्ष अपने को नीचा देखने की हमारी प्रवृत्तिसदियों पुरानी है, लेकिन व्यवस्था ने अभी भी उसे बनाए रखा है। बीसवींशताब्दी के उत्तारार्ध में अनेक देश स्वतंत्र हुए थे तथा इनमें से अनेक ने अभूतपूर्व प्रगति की है। उसके पहले के सोवियत संघ, चीन और जापान के उदाहरण हैं। जिस भी देश ने अपनी भाषा को महत्व दिया वह अंग्रेजी के कारण पीछे नहीं रहा। रूस ने जब अपना पहला अंतरिक्ष यान स्पुतनिक अंतरिक्ष में भेजा था तब अमेरिका में तहलका मच गया था। उस समय रूस में विज्ञान और तकनीक के जर्नल केवल रूसी भाषा में प्रकाशित होते थे। पश्चिमी देशों को स्वयं उनके अनुवाद तथा प्रकाशन का उत्तारदायित्व लेना पड़ा। चीन की वैज्ञानिक प्रगति अंग्रेजी भाषा पर निर्भर नहीं रही।
आज अक्सर यह उदाहरण दिया जाता है कि चीन में हर जगह लोग अंग्रेजी बोलना सीख रहे हैं और इसके लिए विशेष रूप से बजट आवंटित किया गया है, लेकिन यहां पर यह उल्लेख नहीं किया जाता है कि चीन ने समान स्कूल व्यवस्था भी लागू कर ली है। वहां कुछ विशिष्ट स्कूलों में प्रवेश के लिए उठा-पटक नहीं करनी पड़ती। चीन ने यह शैक्षिक अवधारणा भी पूरी तरह मान ली है कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए और ऐसा न करना बच्चों के साथ मानसिक क्रूरता है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चे अन्य भाषा आनंदपूर्वक सीखें तो यह संर्वथा न्यायसंगत तथा उचित होगा। साठ साल से अधिक के अनुभव के बाद भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक कमियां बनी हुई हैं, जिनका निराकरण केवल दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव है। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दुबे ने कहा था कि शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य परंपरा की धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में परंपरा का सृजनात्मक मूल्यांकन भी शामिल होता है, लेकिन क्या हमारी शिक्षा संस्थाएं भारतीय परंपरा की तलाश कर रही हैं? क्या वे भारतीय परंपरा की पोषक हैं? वर्तमान शिक्षा प्रणाली आज पीढ़ी और परंपरा में अलगाव पैदा कर रही है। जनसाधारण से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है।
आधुनिकीकरण की भ्रमपूर्ण व्याख्याओं के कारण हमारी नई पीढ़ी में धुरीहीनता आ रही है। वह न तो परंपरा से पोषण पा रही है और न ही उसमें पश्चिम की सांस्कृतिक विशेषताएं नजर आ रही हैं। मातृभाषा में शिक्षण के साथ अनेक अन्य आवश्यकताएं भी हैं जो हर भारतीय को भारत से जोड़ने और विश्व को समझने में सक्षम होने के लिए आवश्यक हैं। मातृभाषा का इसमें अप्रतिम महत्व है, इससे इनकार बेमानी होगा। ऐसे में शिक्षा में राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर बदलाव करने के स्थान पर शैक्षणिक दृष्टिकोण से आवश्यक बदलाव लाना आज की परिस्थिति में सबसे सराहनीय कदम होगा। भविष्य को ऐसे ही प्रभावशाली प्रयासों की आवश्यकता है।

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !

रवींद्र नाथ जी के विचारों की अन्तिम कड़ी में पेश हैं उनके मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बारे में .......आगे इस बात को बढाते हुए ज्ञान जी की छोडी हुई चिंतन की लकीर पर कुछ रोशनी डालने की कोशिश करूंगा ।


रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मातृभाषा को बड़े सम्मान से देखा और कहा कि अपनी भाषा में शिक्षा पाना जन्मसिद्ध अधिकार है। मातृभाषा में शिक्षा दी जाए या नहीं इस तरह की कोई बहस होना ही बेकार है, उन्होंने कहा है कि अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने का जन्मसिद्ध अधिकार भी इस अभागे देश में तर्क और बहस-मुहाबिसे का विषय बना हुआ है। उनकी मान्यता थी कि जिस तरह हमने माँ की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है, ये दोनों माताएँ हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं। रवीन्द्रनाथ ने मातृभाषा की महत्ता को समझा और उसे समझाने का प्रयास भी किया।

वर्तमान में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक रूप से वांछनीय है क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा को व्यवहृत होते देखते हैं, तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं और यदि उन्हें सब कुछ उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाता है, तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बेहद आसान हो जाता है।

सर्वसाधारण की शिक्षा के विषय में विचार करते हुए गुरुदेव ने अपनी चिंता इन शब्दों में प्रकट की मातृ-भाषा में यदि शिक्षा की धाराप्रशस्त न हो तो इस विद्याहीन देश में मरुवासी मन का क्या होगा । इस कथन से जाहिर होता है कि उनके मन में यह विचार था कि इस देश में लोगों को शिक्षित करना अपेक्षित है और मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान करना ही सबसे प्रभावी कदम है।


भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी `निज भाषा´ कहकर प्रकारांतर से मातृभाषा के महत्व को अपने निम्नलिखित बहुचर्चित दोहे में निर्दिष्ट किया है। निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञाने के , मिटै हिय को सूल।। वस्तुत: प्रत्येक चिंतक, रचनाकार मातृभाषा को महत्व देते हुए अपने-अपने ढंग से, उसके बारे में अपने मंतव्य प्रकट करता है। गुरुदेव रवीन्द्र ने जिस बात को अपने निबंध में अच्छी तरह से समझाया है, उसी बात को भारतेंदु ने कविता के माध्यम से लोगों को अवगत कराने की सफल चेष्टा की है।

इस संदर्भ में रवीन्द्रनाथ ने जापान का दृष्टांत रखा है कि इस देश में जितनी उन्नति हुई है, वह वहाँ की अपनी भाषा जापानी के ही कारण है। जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा।

गुरुदेव ने चिंतन-प्रक्रिया से गुजरते हुए जनसामान्य के लिए इस महत्वपूर्ण विचार को प्रस्तुत किया कि अनावश्यक को जिस परिमाण में हम अत्यावश्यक बना डालेंगे उसी परिमाण में हमारी शक्ति का अपव्यय होता चला जाएगा। धनी यूरोप के समान हमारे पास संबल नहीं है। यूरोपवालों के लिए जो सहज है हमारे लिए वही भारस्वरूप हो जाता है। सुगमता, सरलता और सहजता ही वास्तविक सभ्यता है। अत्यधिक आयोजन की जटिलता एक प्रकार की बर्बरता है।


ध्यातव्य है कि गुरुदेव ने उपर्युक्त विचार शिक्षा की समस्या पर विचार करते हुए प्रकट किए थे। इस तरह उनका मंतव्य स्पष्ट था कि शिक्षित होने के क्रम में अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि हमें अपने परिवेश के अनुरूप आचरण करना चाहिए और फिजूलखर्ची और आडंबर के प्रदर्शन से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हम अपनी अर्थ-व्यवस्था के दायरे में रहेंगे और दिखावा करके हम प्रकारांतर से उन लोगों के अपमान करने के पाप से भी बच जाएंगे जो अर्थाभाव में दो जून की रोटी भी नहीं खा पा रहे हैं।

यों तो गुरुदेव ने अपने लेखन में शिक्षा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है परंतु यहाँ उनमें से कुछ का उल्लेख इस आशय से किया गया है कि इस बात का अनुभव किया जा सके कि उन्होंने शिक्षा पर जो चिंतन किया है, उनके समय के समाज से सम्बन्ध होने के साथ-साथ आज के समय की शैक्षिक समस्याओं का परिचय कराता है और उनके समाधान के सुझाव प्रस्तुत करता है। इस रूप में उनके विचारों की सार्थकता तथा प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

यदि हम लोग गुरुदेव के शैक्षिक विचारों से जुड़े बिंदुओं को ध्यान में रखें और उनके अनुरूप कार्य करें, तो वर्तमान समय की बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है जिसका दूरगामी सकारात्मक परिणाम सामने आएगा।

मातृभाषा में शिक्षा फायदेमंद

वैश्वीकरण और विदेशी कम्पनियों के लिए भारत का बाजार खोल देने के वर्तमान परिदृश्य के दौरान मातृभाषा में प्राइमरी स्कूल स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने पर विचार-विमर्श करना समाप्त सा कर दिया गया है। ग्रामीण इलाकों में कान्वेंट स्कूल तेजी से बढ़ रहे हैं और इनकी स्वीकार्यता भी बढ़ रही है लेकिन क्या हमारे पास इस रूझान के समर्थन में कोई वैज्ञानिक डाटा है या यह भी कि हम मातृभाषा में अपने बच्चों को विवेकवान और बुद्धिमान बनाने वाली ऎसी शिक्षा प्रदान कर सकते हैं जो उन्हें मौलिक रूप से मजबूत व्यक्तित्व का मालिक बना सके, उनकी दक्षता और रचनात्मकता, सृजनात्मकता को बेहतर प्रेरणा दे सके। इसमें से बाद वाले विवादित मुद्दे के समर्थन में वैज्ञानिक साक्ष्य मौजूद हैं।  

मानव विकास के क्रम में भाषा का एक विशिष्ट अधिकार है, उसकी अधिमानता है और वरीयता है। मानव मस्तिष्क में भाषा विज्ञान के ढेर सारे 'जोन' होते हैं। मस्तिष्क का यही जोन उसका  वर्गभेद करते हैं। यही भाग व्यक्ति के ज्ञान, समझ, विभेद, निर्णय लेने की क्षमता, आत्मिक और धार्मिक प्रवृत्ति में सहायक होता है और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण निर्माण होता है और उसमें बहुत बड़ी भाषायी दक्षता पनपती है। 

व्यक्ति जो भाषा अपने परिवार में बोलता है, जिस भाषा में अपने संदेशों को संप्रेषित करता है अथवा जो भाषा स्थानीय समुदाय में प्रभावशाली होती है, उसमें अगर कोई अनुदेश या उपदेश दिया जाता है तो उसके कई फायदे होते हैं। मानव मस्तिष्क मातृभाषा में दिए गए संदेश को ग्रहण करने के प्रति काफी संवेदनशील होता है। शिष्य भी ज्यादा संवादात्मक रूख अपनाते हैं और सवाल-जवाब करने में दिलचस्पी लेते हैं। 

अमरीकी भाषाविद् और दार्शनिक नॉम चोमस्की, जिनकी ख्याति भाषा विज्ञान में सबसे बड़े योगदानकर्ता के रूप में है, का कहना है कि बच्चे में भाषायी और व्याकरण सम्बन्धी समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं। अर्थात सहज और स्वाभाविक व्याकरण संकेत देती है आनुवांशिक संवेदनशीलता का। विद्यार्थियों को ऎसी भाषा में निर्देश या उपदेश, जो उनकी समझ में न आए, ठीक उसी तरह है जिस तरह तैराकी सिखाए बिना ही व्यक्ति को पानी में कूदने को कह दिया जाए, ऎसे में वह कैसे तैरेगा? ख्यातिलब्ध विद्वानों का कहना है कि ऎसे लोग जो अपनी पैदायशी भाषा में शिक्षा नहीं ग्रहण करते हैं, उन्हें सीखने में ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और उनमें बीच में स्कूल छोड़ने की दर भी ज्यादा होती है। दूसरी बात यह कि असंतोषजनक से ढंग से प्रशिक्षित अध्यापक को विदेशी भाषा पढ़ाने में काफी दिक्कत आती है और उनमें आत्मविश्वास भी नहीं रहता अपेक्षाकृत मातृभाषा में अध्यापन करने के। इससे हालात बदतर ही होते हैं। 

इसके अलावा स्नायु कोशिकाओं के जो विशेष तरह के झुंड हैं और जिन्हें मस्तिष्क में न्यूरॉन प्रतिबिम्ब के रूप में जाना जाता है, वे घर या समाज में बोली जाने वाली भाषा को तुरन्त ही पकड़ लेते हैं और संकेतों को भी ग्रहण कर लेते हैं। वे मातृभाषा में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा को भी जल्द ही समझ लेते हैं। इस प्रकार मातृभाषा में शिक्षा देना ज्यादा आसान और स्थाई होता है। तीव्र गति से याद करना भी आसान रहता है। इससे मानव के व्यक्तित्व को मजबूत बनाने में मदद मिलती है। 

यहां यह समझ लेना भी रूचिकर है कि एक बार यदि मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण कर ली गई तो दूसरी भाषा को समझने की यह बेहतर विधा है। इस प्रकार मातृभाषा में जो हमारी दक्षता है, वह धीरे-धीरे ज्यादा प्रभावशाली तरीके से दूसरी भाषा में प्रवीणता हासिल कर सकती है। 

डॉ. अशोक पानगडिया
न्यूरोलॉजिस्ट और राज्य आयोजना बोर्ड के सदस्य

भारत के संविधान में राजभाषा से संबंधित भाग-17

संवैधानिक प्रावधान
अध्याय 1--संघ की भाषा
अनुच्छेद 120. संसद् में प्रयोग की जाने वाली भाषा - (1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद् में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा
परंतु, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी में या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृ-भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
(2) जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो   या अंग्रेजी में  शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो ।
अनुच्छेद 210: विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा - (1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी  में या अंग्रेजी में किया जाएगा
परंतु, यथास्थिति, विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
(2)  जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो  या अंग्रेजी में   शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो :
परंतु हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में, यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले पंद्रह वर्ष शब्दों के स्थान पर  पच्चीस वर्ष  शब्द रख दिए गए हों :
परंतु यह और कि  अरूणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले पंद्रह वर्ष शब्दों के स्थान पर चालीस  वर्ष शब्द रख दिए गए हों ।
अनुच्छेद 343. संघ की राजभाषा--
(1) संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
(2) खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था :
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
(3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद् उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात्‌, विधि द्वारा
(क) अंग्रेजी भाषा का, या
(ख) अंकों के देवनागरी रूप का,
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएं।
अनुच्छेद 344. राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति--
(1) राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारंभ से पांच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात्‌ ऐसे प्रारंभ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।
(2) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को--
(क) संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग,
(ख) संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बंधनों,
(ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा,
(घ) संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंकों के रूप,
(ड़) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किए गए किसी अन्य विषय, के बारे में सिफारिश करे।
(3) खंड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में, आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के संबंध में अहिंदी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।
(4) एक समिति गठित की जाएगी जो तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी जिनमें से बीस लोक सभा के सदस्य होंगे और दस राज्य सभा के सदस्य होंगे जो क्रमशः लोक सभा के सदस्यों और राज्य सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।
(5) समिति का यह कर्तव्य होगा कि वह खंड (1)के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में प्रतिवेदन दे।
(6) अनुच्छेद 343 में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति खंड (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ उस संपूर्ण प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निदेश दे सकेगा।
अध्याय 2- प्रादेशिक भाषाएं
अनुच्छेद 345. राज्य की राजभाषा या राजभाषाएं--
अनुच्छेद 346 और अनुच्छेद 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगाः
परंतु जब तक राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।
अनुच्छेद 346. एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा--
संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने के लिए तत्समय प्राधिकृत भाषा, एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी :
परंतु यदि दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिंदी भाषा होगी तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।
अनुच्छेद 347. किसी राज्य की जनसंख्या के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध--
यदि इस निमित्त मांग किए जाने पर राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो वह निदेश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए, जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए।
अध्याय 3 - उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा
अनुच्छेद 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा--
(1) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा
उपबंध न करे तब तक--
(क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी,
(ख) (i) संसद् के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुरःस्थापित किए जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के,
(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों के ,और
(
iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के, प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।
(2) खंड(1) के उपखंड (क) में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगाः
परंतु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश को लागू नहीं होगी।
(3) खंड (1) के उपखंड (ख) में किसी बात के होते हुए भी, जहां किसी राज्य के विधान-मंडल ने,उस विधान-मंडल में पुरःस्थापित विधेयकों या उसके द्वारा पारित अधिनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों में अथवा उस उपखंड के पैरा (iv‌) में निर्दिष्ट किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहां उस राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल के प्राधिकार से प्रकाशित अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद इस अनुच्छेद के अधीन उसका अंग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।
अनुच्छेद 349. भाषा से संबंधित कुछ विधियां अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया--
इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि के दौरान, अनुच्छेद 348 के खंड (1) में उल्लिखित किसी प्रयोजन के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबंध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पुरःस्थापित या प्रस्तावित नहीं किया जाएगा और राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को पुरःस्थापित या किसी ऐसे संशोधन को प्रस्तावित किए जाने की मंजूरी अनुच्छेद 344 के खंड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों पर और उस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन गठित समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ ही देगा, अन्यथा नहीं।
अध्याय 4-- विशेष निदेश
अनुच्छेद 350. व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा--
प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा।
अनुच्छेद 350 क. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं--
प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।
अनुच्छेद 350 ख. भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकारी--
(1) भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा।
(2) विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के संबंध में ऐसे अंतरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे,
राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
अनुच्छेद 351. हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश--
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।

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