Saturday, December 25, 2010

सिमरथ रो सियाळो

गरीबियै री गरमी,

सिमरथ रो सियाळो

-रामस्वरूप किसान



धोरां री धरती पर पाळो उतरयो । गे़ड चढ्यो। बूढै-बडेरां रा हाड कांप्या। आठूं पौर एक ई रट। आज तो भोत रट्ठ पड़ै। कोझी रीळ चालै। उतरादी डांफर है। बंचगे रईयो टाबरो! पण टाबर तो कूदता फिरै। बां रो तो पाळो बकरिया चरै। माल्ला तो बूढियां रै मंडग्या। खड़्यै दिन रिजाई में बड़ै अर भातै जाय'र किरड़ै री भांत नाड़ बारै काढै। पाळै में किरड़ै अर बूढै री एक गत। चौमासै रो सतरंगो किरड़ो पाळै में इकरंगो बणै। काळो मूराड़। सत बायरो। लकड़ी में घाल किन्नै ई बगाद्यो भांवूं। हालै ई कोनी। फगत आंख काढ़बो करै हंगायै पाडै दां। एन ओ ही हाल बोदियां रो। कैबा चालै- टाबर नै म्हैं पालूं कोनी, जुवान मेरो भाई, बूढियै नै छोडूं कोनी, भावूं ओढै सात रिजाई।
पण जुवानां रो हाल सूं उल्टो। बां नै ओ पाळो मीठो लागै। मिसरी रै उनमान। नूंवो खून। पाळै नै कां दिवाळ। बै तो कोढियै रट्ठ सूं आणंद काढणो जाणै। सांप रै फण सूं मिण काढणी आवै बां नै। सारू बै इण पाळै रो मजो लेवै। सियाळै री लाम्बी रात रो सुख लूटै।
सियाळो जोरावर रो साथी पण निजोरै रो बैरी। कैबा है- गरीबियै री गरमी, सिमरथ रो सियाळो। पाळै में गरीब में फोड़ा ढंगसिर गाबो जुड़ै नीं। जूती जु़डै नीं। अर ना सोवण नै बिछावण। पाळै रो असली दु:ख तो पोह री रात में फुटपाथ पर सूत्या जाणै बापड़ा। पण इण में पाळै रो कां दोस! ओ दोस तो है जिकां रो ई है। पाळो तो पाळो ई है बापड़ो। परकरती रो लाडलो। जकै रो एक न्यारो ई फुटरापो हुवै। ओ रुत रो पातस्या नीं तो बजीर जरूर है। रुत में खाणै-पीणै अर पै'रणै-औढणै रो न्यारो ई सुवाद। लोग जमावणो जमावै। पींडिया खावै। खोवो काढै। गाजर-पाक बणावै। घी-दूध खाणै रो ई ईं रुत में मजो है।
आ रुत मरु रै सांवळै गात नै गौरो कर नाखै। उन्याळै अर चौमासै में तलीज्योडो आदमी रुत ईं में टंवरा काढण लागै। उण रै हाडां चामड़ी आवै। क्यूँ के ना गरमी ना तावड़ो। ना ऊमस ना झळ। सो' कीं सीतळ ई सीतळ। जकै में ना माखी ना माछर। ईं वास्तै नां चिरमिराट ना झरळाट। ना खुजली ना खाज। अर ना ई आवै पसेव। डील पड़्यो रैवै पोथी जिसो। अर ओ पोथी जिसो डील पाळै री लुज्जत लूटै। गाबां में गुरक होय'र चूंतरियां पर हथाई करै। होका सुरड़ै। बातां रा बडका पाड़ै। मुंह री भाप बारै काढै। अर घणो पाळो हुवै तो धुंई बाळै। जकी रै च्यारूंमेर बैठ हथाई जोड़ै क्यूं ? पाळै रा है नीं मजा। अर सोवण बगत सोड़ियै-रिजाई में बड़'र बां नै ताता करै। रिजाई नै च्यारूंमेर सूं दाब'र भीतर रो मौसम मन-माफक बणाल्यै। अर पछै लेवै मीठा-मीठा सुपना।
अर अबार बांचो पोह-माह म्हींनै सारू लोक चलत रा ऐ दोय दूहा-

उगमियो उतराध रो, नवजोबन संजोग।
पोस महीनै गोरड़ी, कदै न छंडै लोग।।

माघ महीनै सी पड़ै, तिण रुत चलै बलाय।
ऊंडै पड़वै पोढबो, कामण कंठ लगाय।।

Friday, August 27, 2010

समै गी बात

समै गी बात तो बटोड़ा ई बताद्यै



अच्छी
बरसात ने बदली इलाके की रंगत


परलीका. इलाके में अच्छी बरसात होने से एक ओर जहां किसानों के चेहरों पर रौनक देखी जा सकती है, वहीं हर कहीं पसरी हरियाली अच्छे जमाने का हाल बयान कर रही है। बाड़े-बटोड़ों में भी हरियाली देखते ही बनती है। बड़े-बुजुर्गों से अक्सर सुनी जाने वाली राजस्थानी कहावत 'समै गी बात तो बटोड़ा ई बताद्यै' को अब प्रत्यक्ष में देखा जा सकता है।
अच्छी बरसात ने इलाके की रंगत ही बदल दी है। खेतों में फसलें लहलहा रही हैं। काकडिय़ा, काचर, लोइया, टींडसी, तोरूं आदि की बेलें पसरी हैं और घर के खेत की देशी सब्जी के ठाठ हो गए हैं। पशुओं के लिए हरी घास का अभाव नहीं रहा। सड़क किनारे, गलियों और यहां तक कि छत और मुंडेर पर भी घास लहलहाता दिख रहा है। हाड़ी के लिए रखे गए खेतों में पसरा घास पशुओं को बरबस ही आकर्षित करता है। ग्रामीणों के अनुसार इन दिनों दूध की आमद बढ़ गई है और उन्हें पशुपालन एक लाभदायक पेशे के रूप में नजर आने लगा है।

बेलड़ल्यां लड़लूम
खेतों में पसरी बेलों पर बेशुमार फल आने से कातीसरे का असली रूप इस बार नजर आने लगा है और ऐसे में राजस्थानी के सुप्रसिद्ध कवि रामस्वरूप किसान के दूहे बरबस ही जुबान पर आने लगे हैं।
काचर लाग्या गोटिया, बेलड़ल्या लड़लूम।
तोरूं चढरी जांटियां, टींडसियां री धूम॥

सुरंगी रुत आई म्हारै देस
खेतों में पसरी हरियाली, अठखेलियां करते जिनावर, लबालब भरे तालाब-कुंड और डिग्गियां, गूंजते लोकगीत, हरे-भरे पेड़ों पर पंछियों का कलरव और मंद-मंद बहता शीतल समीर आदि मिलकर पूरे वातावरण को सुरमयी बना रहे हैं। ऐसे में खेतों में काम करते किरसाण-किरसानणी के कंठों से सुरमयी लोकगीत बरबस ही फूट पड़ते हैं- सुरंगी रुत आई म्हारै देस, भलेरी रुत आई म्हारै देस।

मूंग-मोठ की फसलें जबरी
किसानों के अनुसार इस बार मूंग, मोठ, बाजरा, ग्वार और अरंड पर फाल बहुत अच्छा है और इनकी रिकार्ड तोड़ फसलें होने के आसार हैं। मूंग-मोठ व अरंड का बाजार-भाव अच्छा होने से किसानों की आमद में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होने के आसार दिखने लगे हैं। बरसों बाद सुरंगी फसलें देखने को मिली हैं। फलस्वरूप रोही के जिनावर हरिण, रोझ आदि की रूआंळी न्यारी दिखने लगी है। भैंसों की पीठें भी इतनी चिकनी हो गई हैं कि मक्खी फिसल जाए।
फोटो - परलीका के एक बाड़े में बटोड़े पर पसरी बेलें।
माफ़ करज्यो सा रपट दैनिक भास्कर अख़बार सारू हिंदी में ही लिखी ही अर 27 अगस्त 2010 नै छपी भीसो अठै मूल रूप में ही लगा रैयो हूँ सा.
-डॉ. सत्यनारायण सोनी

Wednesday, August 4, 2010

वादळियां भागी फिरै

वादळियां भागी फिरै


सोनै सूरज ऊगियो
दीठी वादळियां।
मुरधर लेवै वारणा
भर-भर आंखडिय़ां॥

सूरज किरण उंतावळी
मिलण धरा सूं आज।
वादळियां रोक्यां खड़ी
कुण जाणै किण काज॥

सूरजमुखी सै सूकिया
कंवळ रह्या कमळाय।
राख्यो सुगणै सुरज नै
वादळियां विलमाय॥

छिनेक सूरज निखरियो
विखरी वादळियां।
चिलकण मुंह अब लागियो
धरा किरण मिळियां॥

छिन में तावड़ तड़तड़ै
छिन में ठंडी छांह।
वादळियां भागी फिरै
घात पवन गळबांह॥
-चंद्रसिंह

Thursday, July 22, 2010

मिलण पुकारै मुरधरा

मिलण पुकारै मुरधरा



खो मत जीवण, वावळी
डूंगर-खोहां जाय।
मिलण पुकारै मुरधरा
रम-रम धोरां आय॥

नांव सुण्यां सुख ऊपजै
हिवड़ै हुळस अपार।
रग-रग नाचै कोड में
दे दरसण जिण वार॥

आयी घणी अडीकतां
मुरधर कोड करै।
पान-फूल सै सूकिया
कांई भेंट धरै॥

आयी आज अडीकतां
झडिय़ा पान'र फूल।
सूकी डाळ्यां तिणकला
मुरधर वार समूल॥

आतां देख उंतावळी
हिवड़ै हुयो हुळास।
सिर पर सूकी जावतां
छूटी जीवण आस॥
-चंद्रसिं

Friday, July 16, 2010

एक आसरो वादळी

एक आसरो वादळी


आठूं पोर अडीकतां
वीतै दिन ज्यूं मास।
दरसण दे अब वादळी
मत मुरधर नै तास॥

आस लगायां मुरधरा
देख रही दिन रात।
भागी आ तूं वादळी
यी रुत वरसात॥

कोरां-कोरां धोरियां
डूंगां डूंगां डैर।
आव रमां अे वादळी
ले-ले मुरधर ल्हैर॥

ग्रीखम रुत दाझी धरा
कळप रही दिन-रात।
मेह मिलावण वादळी
वरस वरस वरसात॥

नहीं नदी नाळा अठै
नहिं सरवर सरसाय।
एक आसरो वादळी
मरु सूकी मत जाय॥

कविवर चंद्रसिं बिरकाळी री 'वादळी' सूं.....

Tuesday, July 13, 2010

वादळी-अढाई आखर

वादळी


राम-राम सा!
आज सूं आपां लगोलग बांचांला कविवर चंद्रसिं
बिरकाळी री 'वादळी'।
पैलपोत कवि रा 'अढाई आखर'।


अढाई आखर

मोर री 'पिहू', कोयल री 'कुहू', पपीहै री 'पी पिव' अर टीटोड़ी री 'टी टिव' आप रै रूप में पूरी रट है। ऐ आप-आपरी विसेसता न्यारी-न्यारी राखै है अर जी रा भाव पूरै जोर सूं परगट करै है। इण रट नै चावै आं रो सुभाव समझो चावै प्रकृति री दात, पण मिनख री विसेसता आं सगळां सूं न्यारी है। मिनख बुद्धि रै परभाव सूं दूसरां री भासा अथवा भावां पर रीझ वांनै आपरा वणाणै रो सांग भरै है पण जद जी छोळां चढ़ै, कोड में रग-रग नाचै, बैं मस्ती में मातृभाषा री गोद में ही मोद आवै। जद वड़ां री बात याद आवै 'मांग्यां घीयां किसा चूरमा' अथवा भारी दुख सूं जी में ठेस लगै तो चट मा ही याद आवै, मांगेड़ी धाड़ के ठारै? जद इसी बात है तो दूजा क्यूं जी दोरो करै।
वादळी मरुधर नैं प्राणां सूं प्यारी है। बैं रै चाव नै कुण पूगै। रात-दिन आंख्यां में रमै। जैं रो नाम सुण्यां सुख ऊपजै। वाळकपणै सूं जिण में ऊंट-घोड़ां री अनेक कल्पना करी जावै, जिण में इंद्रधनस अर जळेरी जी ललचावै, इसी प्यारी चीज रा गुण दूसरी भासा में गाऊं, आ सोचण री विरियां कैं नैं? झट मुंह सूं 'वरसे भोळी वादळी आयो आज असाढ़' निकळतां ही 'रम रम धोरां आव' री रट लागै। जठै जी खोल मिलणो हुवै, दूजो वीचविचाव किसो? आपरी भासा अर आपरै भावां पर भरोसो चाहिजै।
-चंद्रसिं

जीवण नै सह तरसिया बंजड़ झंखड़ वाढ।
वरसे, भोळी वादळी आयो आज असाढ॥

Monday, July 5, 2010

मायड भाषा रा दूहा

म्हारी मायड भाषा रा दूहा

राजस्थानी भाषा




राज बणाया राजव्यां,भाषा थरपी ज्यान ।
बिन भाषा रै भायला,क्यां रो राजस्थान ॥१॥

रोटी-बेटी आपणी,भाषा अर बोवार ।
राजस्थानी है भाई,आडो क्यूं दरबार ॥२॥

राजस्थानी रै साथ में,जनम मरण रो सीर ।
बिन भाषा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर ।।३॥

पंचायत तो मोकळी,पंच बैठिया मून ।
बिन भाषा रै भायला,च्यारूं कूंटां सून ॥४॥

भलो बणायो बाप जी,गूंगो राजस्थान ।
बिन भाषा रै प्रांत तो,बिन देवळ रो थान॥५॥

आजादी रै बाद सूं,मून है राजस्थान ।
अपरोगी भाषा अठै,कूकर खुलै जुबान ॥६॥

राजस्थान सिरमोड है,मायड भाषा मान ।
दोनां माथै गरब है,दोनां साथै शान ॥७॥

बाजर पाकै खेत में,भाषा पाकै हेत ।
दोनां रै छूट्यां पछै,हाथां आवै रेत ॥८॥

निज भाषा सूं हेत नीं,पर भाषा सूं हेत ।
जग में हांसी होयसी,सिर में पड्सी रेत ॥९॥

निज री भाषा होंवतां,पर भाषा सूं प्रीत ।
ऐडै कुळघातियां रो ,जग में कुण सो मीत ॥१०॥

घर दफ़्तर अर बारनै,निज भाषा ई बोल ।
मायड भाषा रै बिना,डांगर जितनो मोल ॥११॥

मायड भाषा नीं तजै,डांगर-पंछी-कीट ।
माणस भाषा क्यूं तजै, इतरा क्यूं है ढीट ॥१२॥

मायड भाषा रै बिना,देस हुवै परदेस ।
आप तो अबोला फ़िरै,दूजा खोसै केस ॥१३॥

भाषा निज री बोलियो,पर भाषा नै छोड ।
पर भाषा बोलै जका,बै पाखंडी मोड ॥१४॥

मायड भाषा भली घणी, ज्यूं व्है मीठी खांड ।
पर भाषा नै बोलता,जाबक दीखै भांड ॥१५॥

जिण धरती पर बास है,भाषा उण री बोल ।
भाषा साथ मान है , भाषा लारै मोल ॥१६॥

मायड भाषा बेलियो,निज रो है सनमान ।
पर भाषा नै बोल कर,क्यूं गमाओ शान ॥१७॥

राजस्थानी भाषा नै,जितरो मिलसी मान ।
आन-बान अर शान सूं,निखरसी राजस्थान ॥१८॥

धन कमायां नीं मिलै,बो सांचो सनमान ।
मायड भाषा रै बिना,लूंठा खोसै कान ॥१९॥

म्हे तो भाया मांगस्यां,सणै मान सनमान ।
राजस्थानी भाषा में,हसतो-बसतो रजथान ॥२०॥

निज भाषा नै छोड कर,पर भाषा अपणाय ।
ऐडै पूतां नै देख ,मायड भौम लजाय ॥२१॥

भाषा आपणी शान है,भाषा ही है मान ।
भाषा रै ई कारणै,बोलां राजस्थान ॥२२॥

मायड भाषा मोवणी,ज्यूं मोत्यां रो हार ।
बिन भाषा रै भायला,सूनो लागै थार ॥२३॥

जिण धरती पर जळमियो,भाषा उण री बोल ।
मायड भाषा छोड कर, मती गमाओ डोळ ॥२४॥

हिन्दी म्हारो काळजियो,राजस्थानी स ज्यान ।
आं दोन्यूं भाषा बिना,रै’सी कठै पिछाण ॥२५॥

राजस्थानी भाषा है,राजस्थान रै साथ ।
पेट आपणा नीं पळै,पर भाषा रै हाथ ॥२६॥

Sunday, June 20, 2010

बूढ़ी माई बापरी

बूढ़ी माई बापरी, हरखी धरा समूल
आसाढ़ री पैली बिरखा साथै धरती पर एक जीव उतरै। बेजां फूटरो, बेजां कंवळो अर बेजां नाजक। नाजक इत्तो कै घास पर पळका मारती ओस नै परस सकां पण इण नै परसतो हाथ धूजै। आ टीबां पर रमती ओस ई है। लाल ओस। जियां ओस तावड़ो नीं सैय सकै अर सूरज री किरणां रै रथ पर सवार होय'र इण लोक सूं उण लोक सिधार ज्यावै। उणी भांत ओ जिनावर भी तावडिय़ै सूं बचण सारू बूई-बांठ अर घास-पात री सरण में चल्यो जावै। कैय सकां, टीबां रै लोक सूं बांठां रै लोक सिधार ज्यावै। अर जद ठंड हुवै, पाछो ई टीबां नै मखमली करद्यै।
आपणी भाषा में आ बूढ़ी माई बजै। तीज, सावण री डोकरी, थार री बूढ़ी नानी अर ममोल इणरा ई नांव। हिंदी में इणनै वीर-बहूटी अर इंद्रवधू अनै अंग्रेजी में रेड वेलवेट माइट कैवै। जीव विज्ञान री दीठ सूं ओ संधि पाद विभाग री लूना श्रेणी में वरूथी वर्ग में द्रोम्बी डायोडी परिवार में डायनाथोम्बियम वंस रो जीव है। इणरो हाड-पांसळी बायरो डील घणो लचीलो। पैली बिरखा री टेम बूढ़ी माई जमीं में इंडा देवै। आठ पौर में बचिया बारै निकळै। ऐ जमीं रै मांय-मांय नान्हा-नान्हा जीवां नै खाय'र पळै। अर सूरज उगाळी रै साथै बारै टुरता-फिरता निगै आवै। जद सूरज छिपै, पाछा ई जमीं में बड़ ज्यावै। इणरै आठ पग। पण नखराळी चाल। संकोची सभाव। जकी छेड़्यां छापळै। डील पर रेशम सूं कंवळा लाल बाळ। इणरो गात इत्तो कंवळो कै चित्रण करतो कवि कतरावै। इत्ता कंवळा सबद कठै लाधै? अर कठै लाधै इत्तो कंवळो भाव, जिणसूं इणरो कंवळो डील अभिव्यक्त होय सकै। इणनै किणरी उपमा देवै? इसो उपमान कठै ढूंढै? मखमल? ना! कठै मखमल अर कठै बूढ़ी माई! कठै राम-राम अर कठै टैं-टैं। हां, मां रै मोम सरीखै दिल री कंवळाई सूं मींड सकां आपां इणनै। पण आ उपमा ई बेमेळ है। क्यूंकै वस्तुगत खासियत री भावगत खासियत सूं तुलना अपरोगी लागै। ईयां कै बारली विसेसता नै भीतरली विसेसता सूं तोलणो फिट कोनी बैठै। अब रैयी बात इण रै फूटरापै री। फूटरी इत्ती कै देख्यां जीवसोरो हुवै। हथाळी पर लेवण नै जी करै। पण इण रो रूप बिगड़ण रै भय सूं कदे-कदास ई अर बा ई अणूंती सावचेती सूं पकड़'र हथाळी पर धरां। आ हाथ में लेयां मैली हुवै। इण रै रूप रो पार नीं। टीबां पर हवळै-हवळै चालती बूढ़ी माई लाल जोड़ै में लाल बीनणी-सी लागै। जकी रूप रै रसियां नै आप कानी खींचै। आ टाबरां नै घणी प्यारी लागै। वै इणनै हथाळी पर राखै अर घणा लाड-कोड करै। बा पंजा भेळा कर्यां हथाळी पर पड़ी रैवै। टाबर नाचता-कूदता गावै- 'तीज-तीज थारो मामो आयो, आठूं पजां खोल दे।' आओ, आपणी भाषा रै दूहां में इणरो बिड़द बखाणां!

बूढ़ी माई बापरी, हरखी धरा समूल।
जाणै आभै फैंकिया, गठजोड़ै पर फूल॥

रज-रज टीबां में रमै, बिरखा मांय ममोल।
जाणै मरुधर ओढियो, चूंदड़ आज अमोल॥

चालै धरती सूंघती, बूढ़ी माई धीम।
आई खेत विभाग सूं, माटी परखण टीम॥

बूढ़ी माई आ नहीं, झूठो बोलै जग्ग।
इंदराणी रै नाथ रो, पड़ग्यो हूसी नग्ग॥

आज रो औखांणो

मेह रा पग लीला।

मेह के पाँव हरे-भरे।

चार शब्दों की इस कहावत में कितने-कितने विलक्षण भाव निहित हैं। बरसात में बादलों की ऊँचाई से होती है और धरती पर हरियाली छाने लगती है। घटा-बादल तो मेह का ऊपरी भाग है और पाँव हैं हरी-भरी धरती, जिसमें असंख्य फूल सजे-संवरे हैं। मेह की हरियाली से सबके दिल हरे-भरे हो जाते हैं।

प्रस्तुति : डॉ. सत्यनारायण सोनी, परलीका (हनुमानगढ़)

Sunday, May 30, 2010

अंतस री अरज


अंतस री अरज

आप सबनै खम्माघणी अरज होवै सा!
मायड़ भाषा रा लाडेसर सपूत कलावंत स्वरूप खान इंडियन आयडल में राजस्थानी धजा नै मजबूती सूं थाम राखी छै। इण इतियासू मुकाम पर पोंचवा री स्वरूप खान नै घणी-घणी बधाई अर सफलता री मंगळकामनावां।
आप सब सूं अंतस री अरज छै के राजस्थान रा सुर साधक अर मायड़ भाषा रा सपूत नै एसएमएस रै रूप में समर्थन देय'र मायड़ भाषा रै सम्मान रा यज्ञ में आहूति देवा रा भागी बण'र पुन्न कमावो सा!
जै राजस्थान। जै राजस्थानी!

Monday, May 24, 2010

घड़ला सीतल नीर रा

घड़ला सीतल नीर रा
कल्याणसिंह राजावत

(आं दूहां रो सस्वर पाठ सुणन सारू अठै क्लिक करो सा!)

राजस्थानी रा चावा कवि अर सरस गीतकार। नागौर रै चितावा गांव में 8 दिसम्बर 1939 नै जलम। 'रामतिया मत तोड़', 'मिमझर', 'परभाती', 'जूझार', 'आ जमीन आपणी' अर 'कुण-कुण नै बिलमासी' कविता पोथ्यां घणी चावी। मीरा पुरस्कार सूं नवाजिया थका राजावत सिणगार रस री कविता रा हेताळु।
राजस्थानी में कैबा चालै- बिन भाषा बिन पाणी, बिलखै राजस्थानी। राजस्थानी जन-जीवन में पाणी रो मोल बतावै कवि रा ऐ सरस दूहा। आप भी बांचो सा!


घड़ला सीतल नीर रा, कतरा करां बखाण।
हिम सूं थारो हेत है, जळ इमरत रै पाण॥


घड़ला थारो नीर तो, कामधेन रो छीर।
मन
रो पंछी जा लगै, मानसरां रै तीर॥


घड़ला थारा नीर में, गंग जमन रो सीर।

नरमद मिल गौदावरी, हर हर लेवै पीर



जितरी ताती लू चलै, उतरो ठंडो नीर।
तन
तिरलोकी राजवी, मन व्है मलयागीर


बियाबान धर थार में, एक बिरछ री छांव।
मिल
जावै जळ-गागरी, बो इन्नर रो गांव॥



रेत कणां झळ नीसरै, भाटै भाटै आग।
झर झर सीतल जळ झरै, घड़ला थारा भाग॥


इक गुटकी में किसन है, दो गुटकी में राम।

गटक-गटक पी लै मनां, होज्या
ब्रह्म समान॥

Tuesday, May 11, 2010

फुटपाथ पर बैठ्यै बाप रा सुपना


फुटपाथ पर बैठ्यै बाप रा सुपना
आईएएस कवि री कवितावां

जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास' राजस्थानी रा नूवां कवियां में आगीवांण। इंटरनेट माथै आपरी कवितावां रो ब्लॉग 'मुळकती माटी' घणो चावो। आरएएस पुरुष वर्ग में पैली ठोड़ रैवण वाळा सोनी आईएएस में पूरै भारत में 29 वीं ठोड़ पर अर राजस्थान में ओबीसी टॉपर रैया है। इण लूंठी सफलता पर 'आपणी भाषा-आपणी बात' कानी सूं वां नै घणा-घणा रंग अनै मोकळी बधाई। आज बांचो श्री सोनी री ताजा कवितावां-

॥ मिनख-लुगाई॥

मिनख
बाद में बणै है
बाप,
भाई,
घरधणी
अर बेटो,
पैलां हुवै है
सदां ई मिनख।
अर लुगाई
सदां ई हुवै
मां,
बैन,
जोड़ायत
अर बेटी,
पण आखी जूण
कदै नीं बण सकै
फगत एक लुगाई।

॥ फुटपाथ पर बैठ्यै बाप रा सुपना॥

सड़क बिचाळै
फुटपाथ पर बैठ्यै
बाप रा सुपना
होग्या ईंट रा,
सिमटगी सोच
एक कमरै मांय।
एक कमरो बण्यां पाछै
नीं दिखै
कमरै रै बा'र स्यूं
फाट्योड़ा गाबां मांय
लगोलग जुवान होंवती
बीं री तीन छोरियां,
नीं दिखैला
बै सारा
पाणी स्यूं
पेट नै स्हारो देंवता।
छात अर भींतां
छुपा सकै
बां रा कई दुख,
ऐ बातां
कदै ई नीं जाणै
महलां मांय रैवण वाळा।
च्यार दीवारां अर
छात री कीमत
जाणै है
आसमान री छात तळै
फगत एक
बूढो बाप।

-जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास'
प्राध्यापक (राजनीति विज्ञान) राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, नेठराना, तहसील-भादरा, जिला-हनुमानगढ़। कानाबाती : 9785114110
स्थायी ठिकाणो-
पुराने राधास्वामी सत्संग भवन के पास, रावतसर ,जिला हनुमानगढ़ [ राज. ] 335524

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Sunday, May 9, 2010

आचार्य श्री महाप्रज्ञजी रो मायड़भाषा प्रेम

आचार्य श्री महाप्रज्ञजी रो मायड़भाषा प्रेम


करीब 15 बरस पैली आचार्य श्री महाप्रज्ञ भादरा सूं नोहर कानी जावै हा। मारग में परळीका गांव। बस अड्डै पर राजस्थानी भाषा में स्वागत रा बैनर टंग्योड़ा देख'र घणा राजी हुया। परळीका मांय थमण रो कोई कार्यक्रम नीं हो, पण मायड़भाषा हेताळुवां री मनवार रो मान राखता थकां महाप्रज्ञजी बठै राजस्थानी भाषा अर साहित्य री महता बखाणता थकां राजस्थानी में ई करीब चाळीस मिनट रो शानदार प्रवचन दीन्हो। पछै तो जैन विश्व भारती में जद-जद साहित्यिक जलसा हुया, परळीका रा साहित्यकारां नै भी याद करीज्या। परळीका गांव रै मायड़भाषा हेत नै बै आपरै प्रवचनां में ठौड़-ठौड़ बखाणता।
फोटू :- परळीका गांव में मायड़भाषा हेताळुवां रै साथै आचार्य श्री महाप्रज्ञ।
प्रस्तुति :- अजय कुमार सोनी

Thursday, May 6, 2010

'मुळकती माटी' बणी सिरताज

नेठराना गांव के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्राध्यापक (राजनीति विज्ञान) पद पर कार्यरत जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास' संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2009 में चयनित घोषित हुए हैं। इसी वर्ष अपने प्रथम प्रयास में ही आरएएस पुरुष वर्ग में टॉपर रह चुके सोनी ने आयोग की ओर से गुरुवार को घोषित परिणाम में देशभर में 29 वां स्थान प्राप्त किया है।
रावतसर तहसील के धन्नासर गांव में 29 नवम्बर 1981 को जनमे सोनी ने इस अवसर पर कहा कि उनका बचपन से संजोया हुआ सपना साकार हो गया है तथा ऐसी कोई उपलब्धि नहीं जिसे मेहनत के दम पर प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह परिणाम सिद्ध करता है कि राजस्थान और खासकर हनुमानगढ़ जिले में शिक्षा के संदर्भ में बहुत बड़ी जाग्रति आई है और सोनी की इस सफलता से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी।
सोनी ने सिद्ध कर दिया है कि हिन्दी माध्यम, ग्रामीण पृष्ठभूमि या सरकारी स्कूल में पढ़कर भी सफलता के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है और अगर कोई इंसान कड़ी मेहनत करता है तो निश्चित तौर पर हर लक्ष्य उसे छोटा नजर आता है।

साहित्यकारों में खुशी का माहौल

स्थानीय साहित्यकार सत्यनारायण सोनी, रामस्वरूप किसान, मेहरचंद धामू व विनोद स्वामी ने सोनी की इस सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त की है। गौरतलब है कि सोनी हिन्दी व राजस्थानी के चर्चित युवा कवि भी हैं तथा इनका कविता संग्रह 'उम्मीदों के चिराग' प्रकाशित हो चुका है। इंटरनेट पर सोनी की राजस्थानी कविताओं का ब्लॉग 'मुळकती माटी' भी काफी चर्चित हुआ है। गत दिनों नई दिल्ली में आयोजित सार्क सम्मेलन में भी सोनी भाग ले चुके हैं तथा अगले वर्ष पाकिस्तान में आयोजित हो रहे विश्व साहित्यकार सम्मेलन में भी इन्हें आमंत्रित किया गया है। सोनी इन दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय से 'विकास के गांधीय प्रतिमान' विषय पर पीएच.डी. भी कर रहे हैं।

Saturday, April 24, 2010

राजस्थानी रचनाकारां सारू सूचना

राजस्थानी रचनाकारां सारू सूचना

राजस्थानी जन-जन ताईं पूगै इण सारू बोधि प्रकाशन पुस्तक पर्व योजना रै तै'त 'राजस्थानी साहित्य माळा' छापण री तेवड़ी है। इण योजना में राजस्थानी रा दस रचनाकरां री एक-एक पोथी रो सैट ऐकै साथै प्रकाशित होय सी। ऐ दस पोथ्यां कहाणी, नाटक, एकांकी, लघुकथा, संस्मरण, व्यंग्य, रेखाचित्र, निबंध, कविता, गज़ल आद विधा में होय सी। साफ है एक विधा में एक टाळवीं पोथी। कुल दस पोथी रै एक सैट री कीमत 100/- (सौ रिपिया) होय सी। इण पोथी माळा रो संयोजन राजस्थानी रा चावा साहित्यकार श्री ओम पुरोहित 'कागद' नै थरपियो है।

योजना में सामल होवण सारू 15 मई, 2010 तक इण ठिकाणै माथै रुख जोड़ो-

श्री ओम पुरोहित 'कागद'
24, दुर्गा कॉलोनी, हनुमानगढ़ संगम-335512
खूंजै रो खुणखुणियो : 9414380571

बोधि प्रकाशन
एफ-77, सेक्टर-9,
रोड नं.-11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया,
बाईस गोदाम, जयपुर

Sunday, April 18, 2010

पत्रिका में पोलमपोल

पाठक-पीठ
समाचार संदर्भ : 'बोलियों से नहीं दी जाती शिक्षा'
राजस्थान पत्रिका री इण बेतुकी खबर पर हाथोहाथ जवाब मांड' मेल करयो हो. इण समाचार रै पक्ष में एक साथै कागद छ्पग्या, पण राजस्थानी जनता री तर्कसंगत बात एक भी नीं छपी. आज संपादक श्री भुवनेश जैन सूं बात हुयी तो बोल्या, हम इस मुद्दे पर अब कुछ नहीं छापेंगे। मतलब राजस्थानी जनता री एक भोत बड़ी पीड़ कोई अख़बार री पीड़ नीं हुय सकै। चलो कोई बात नीं, कोई घाल सकै मूँडै मै मूंग, पण आपां तो नीं. आओ बाँचां........

समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है 'पोलमपोल'
आदरणीय संपादक जी,
शुक्रवार को पत्रिका के राज्यमंच पर 'बोलियों से नहीं दी जाती शिक्षा' शीर्षक से समाचार पढ़कर हैरानी हुई। महज पांच-छह लोगों ने बंद कमरे में बैठकर एक प्रेस-नोट तैयार किया और पत्रिका ने करोड़ों राजस्थानियों की भावनाओं को आहत करने वाला यह समाचार प्रमुखता से छाप दिया।
पूरे समाचार में राजस्थानी जन-समाज को भ्रमित करने वाली बातों के अलावा कुछ नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. वेल्फील्ड अमेरिका, सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, डॉ. एल.पी. टैसीटोरी, डॉ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या, राहुल सांकृत्यायन, झवेरचंद मेघाणी, सेठ गोविन्द दास और काका कालेलकर जैसे विद्वान जिसे स्वतंत्र तथा बड़े समुदाय की एक समृद्ध भाषा मानते हैं, वह महज किसी व्यक्ति विशेष के कहने से बोली नहीं करार दी जा सकती। बोलियां किसी भी भाषा का शृंगार हुआ करती हैं। इस खूबी को भी खामी करार देना कहां की भलमनसाहत है? यह सवाल तो हिन्दी सहित दुनिया की किसी भी भाषा के लिए उठाया जा सकता है कि दिल्ली-मेरठ में खड़ी बोली बोली जाती है, आगरा-मथुरा में ब्रज, ग्वालियर-झांसी में बुंदेली, फर्रूखाबाद में कन्नौजी, अवध में अवधी, बघेलखंड में बघेली, छतीसगढ़ में छतीसगढ़ी, बिहार में मैथिली और भोजपुरी, मगध में मगही। ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा किसे माना जाएगा?
राजस्थान पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'पोलमपोल' शीर्षक से एक राजस्थानी दोहा एक दशक से भी अधिक समय से देख रहा हूं। शायद ही कोई पाठक हो जो सर्वप्रथम इसे पढ़ता हो। क्या इसे हाड़ौती, वागड़, ढूंढाड़, मेवात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़, शेखावाटी आदि अंचलों में समान रूप से नहीं समझा जाता? जब यह दोहा समान रूप से समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है तो पत्रिका को राजस्थानी की एकरूपता का इससे बड़ा क्या प्रमाण चाहिए? यही नहीं राजस्थानी लोकगीतों के ऑडियो-वीडियो सीडी समस्त अंचलों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। ग्यारहवीं से लेकर एम.. तक की पढ़ाई की पाठ्यपुस्तकों की भाषा समस्त अंचलों में एक ही जैसी प्रचलित है। बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण, डूंगरपुर की गवरीबाई, मेड़ता की मीरांबाई, मारवाड़ के समय सुंदर, मेवाड़ के चतुरसिंह और सीकर के किरपाराम खिडिय़ा, बाड़मेर के ईसरदास, अलवर के रामनाथ कविया का काव्य पूरे राजस्थान में सम्मान्य है तो ऐसे तर्कहीन बयानों को पत्रिका प्रोत्साहन क्यों दे रही है?
राजस्थानी के सम्बन्ध में अविवेकपूर्ण टिप्पणी करने वाले ये महानुभव हिन्दी की प्रमुख बोली कही जाने वाली मैथिली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर तो मौन साधे रहते हैं और विश्व की एक बहुत ही समृद्ध भाषा को उसका वाजिब हक दिलाने की मांग का विरोध करने लगते हैं।
राजस्थानी को हिन्दी की बोली मानने वाले ये महानुभव अगर सही मायने में हिन्दी के हितैषी हैं तो प्राचीन और मध्यकालीन सैकड़ों प्रसिद्ध रचनाकारों सहित कन्हैयालाल सेठिया, चंद्रसिंह बिरकाळी, रघुराजसिंह हाड़ा, अन्नाराम सुदामा और विजयदान देथा जैसे कितने ही आधुनिक लेखकों की राजस्थानी रचनाओं को हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल करवाने की वकालत क्यों नहीं करते?
मान्यवर, करोड़ों-करोड़ों राजस्थानी जन-समाज, जो कि सन् 1944 से लेकर आज तक अपनी भाषा को उचित सम्मान दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहा है, को 'चन्द स्वार्थी लोगों' की संज्ञा से अभिहित कर राजस्थान पत्रिका ने उन करोड़ों राजस्थानियों को ठेस पहुंचाई है, जिन्होंने हमेशा 'पत्रिका' को अपने हृदय का हार समझा है।
बस, यही निवेदन है।
-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी,
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, परलीका (हनुमानगढ़)
कानाबाती : 9602412124

Thursday, April 15, 2010

बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ


बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ

- अतुल कनक
(पूर्व संचालिका सदस्य- राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर
प्रदेश मत्री:- अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति.

स्वतंत्र भारत में शिक्षा को लेकर गठित हुए कमोबेश सभी आयोगों ने अपनी अपनी सिफारिशों में शुरूआती शिक्षा मातृभाषा में देने की बात कही है। अनिवार्य शिक्षा विधेयक ने एक बार फिर इस आवश्यकता को रेखांकित किया है। राजस्थान में मातृभाषा में शिक्षण का मुद्दा इसलिये विवादित हो चला है कि राजस्थानियों की मातृभाषा राजस्थानी को अभी तक संवैधानिक मान्यता नहीं मिली है। मान्यता के विरोधी राजस्थान की विविध बोलियों की स्वरूपगत विविधता को लेकर सवाल खड़ा कर रहे हैं कि जिस राजस्थानी का कोई मानक स्वरूप नहीं है, उसे यदि संवैधानिक मान्यता कैसे दी जानी चाहिये। आश्चर्यजनक बात यह है कि मानक स्वरूप का सवाल उस भाषा के लिये खड़ा किया जा रहा है, जिस भाषा की राजस्थान में अपनी एक अकादमी है, केन्द्रीय साहित्य अकादमी हर साल जिस भाषा में सृजनात्मक लेखन को देश की अन्य प्रमुख भाषाओं के साथ पुरस्कृत करती है, जिस भाषा को माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है और देश -दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में जिस भाषा में अध्ययन और शोधकार्य हो रहे हैं। स्पष्ट है कि मान्यता का विरोध दरअसल भाषा का विरोध नहीं, स्वार्थों का विरोध है।
राजनीतिक दृष्टि से हमारे दौर में यदि किसी व्यक्ति के कार्यालय को दुनिया का सर्वाधिक शक्ति संपन्न कार्यालय के बारे में चर्चा की जाये तो स्वाभाविक तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय का उल्लेख होगा। कुछ समय पहले जारी एक विज्ञप्ति में अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय में मनोनयन के लिये जिन भाषाओं के ज्ञान को वरीयता देने की बात कही गई, उनमें राजस्थानी भी एक है। मूल विज्ञप्ति में राजस्थानी के लिये मारवाड़ी शब्द का उपयोग किया गया है। उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी राजस्थानी भाषा की एक प्रमुख बोली है और मारवाड़ अंचल के व्यापारियों के व्यापक कारोबारी प्रभाव के कारण अक्सर राजस्थानी को मारवाड़ी कह दिया जाता है। मारवाड़ी के साथ ही ढूढाड़ी, वागड़ी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मेवाती जैसी बोलियां अपनी तमाम उपबोलियों के साथ राजस्थानी के गौरव की संवाहक भी हैं, और पहचान भी। बोलियों के रूप में परिवर्तन के बारे में तो राजस्थानी में एक कहावत भी प्रचलित है- ‘बारह कोसां बोली पलटे, बनफल पलटे पाकाँ/ बरस छत्तीसा जोबन पलटे, लखण न पलटे लाखाँ ।’
अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय ने राजस्थानी भाषा की क्षमता को मान्यता उस समय दी, जबकि राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग अपने चरम पर है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जन महत्व की भाषाओं को संवैधानिक मान्यता देने के लिये ही संविधान में आठवीं अनुसूची की व्यवस्था की है। लोकतंत्र की महत्ता इस बात में भी है कि वह जनता की आवाज़ को बुलंद करने वाली भाषाओं की ताकत को पहचानता भी है और स्वीकार भी करता है। लोकतंत्र ही क्या, दुनिया की हर राजनीतिक व्यवस्था में लोकभाषाओं की ताकत को स्वीकार किया जाता है। औपनिवेशिक शासनों में इसीलिये शासित राज्यों में शासक शासितों के भाषाई और सांस्कृतिक गौरव का अवमूल्यन करने की हर संभव कोशिश करते थे। इस संत्रास को भारत ने भी झेला है। औपनिवेशिक ताकतों की इसी साज़िश को पहचानते हुए खड़ी बोली के जनक माने जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भारत के पहले स्वातंत्र्य संघर्ष के दिनों में ही लिखा था - निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। अपनी भाषा की उन्नति ही सर्वतोमुखी उन्नति का आधार है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने जब ‘निज भाषा ’ की बात की थी तो उनका मंतव्य भी यही था कि लोक अपनी ताकत को पहचाने। एक भाषा के तौर पर राजस्थानी लोक के प्रति अपने दायित्वों को आज भी बखूबी निभा रही है। व्हाइट हाउस की विज्ञप्ति में राजस्थानी को मान्यता इसका प्रमाण है। दरअसल यह विज्ञप्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान के निवासियों की योग्यता को भी रेखांकित करती है और एक सामर्थ्यवान भाषा के तौर पर राजस्थानी की क्षमता को भी । विसंगति यह है कि इसी राजस्थानी भाषा को भारत के ही संविधान की आठवीं सूची में शमिल किये जाने की मांग दशकों पुरानी होने के बावजूद आज तक पूरी नहीं हो सकी है। डा. कनहेया लाल सेठिया तो - खाली धड़ री कद हुवै, चैरे बिन पिछाण / मायड़ भासा रे बिना क्यां रो राजस्थान ’ कहते कहते ही हमेशा के लिये मौन हो गये। राजस्थान की संस्कृति के गौरव गायक सेठिया का यह दोहा राजस्थानी की मान्यता के संघर्ष का प्रतिनिधि बन गया है।
बेशक राजस्थानी में बोलीगत वैविध्य है, लेकिन यह विविधता ही भाषा को समृद्व करती है। कया हम में से कोई भी यह दावा कर सकता है कि वह हिन्दी के नाम पर जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, वह हिन्दी के मानक स्वरूप की अनुगामिनी है। चेकोस्लोवाकिया के हिन्दी विद्वान डॉ. ओदोलन स्मेकल जब पहली बार भारत आये थे तो उन्होंने निराशापूर्वक कहा था कि मैं जिस भाषा को सीखकर यहाँ आया था, उसे सुनने के लिये तरस गया। दरअसल भाषाएँ तो एक नदी की तरह होती हैं। निरंतर प्रवाह उनके स्वरूप को परिवर्तित करता ही है। हिन्दी का मानक स्वरूप संस्कृत निष्ठ है लेकिन आज हिन्दी में अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी ही नहीं पुर्तगाली तक के शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। भाषा की यह लोचशीलता ही उसे व्यापक बनाती है। आज भी अंग्रेजी के सर्वाधिक मान्य शब्दकोषों में एक ‘आक्सफोर्ड डिक्शनरी ’ में हर साल कुछ विदेशी भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को शामिल किया जाता है। जहाँ तक राजस्थानी के मानक स्वरूप का सवाल है राजस्थानी के प्राचीन ग्रंथों की भाषा हमारे लिये अनुकरणीय हो सकती है। राजस्थानी का पहला उपन्यास कनक सुंदर करीब एक सौ दस साल पहले हैदराबाद से छपा था। उससे भी पहले सन् 1857 में बूँदी के राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपने साथियों को जो पत्र लिखे थे या फिर उससे भी करीब चार सदी पहले गागरौन के शिवदास गाडण ने ‘अचलदास खींची री वचनिका ’ नाम से जो पुस्तक लिखी थी, उन सबकी भाषाओं में अद्भुत साम्य है। इन सबने संबंध कारक का/के/की के स्थान पर रा/रे /री का और है/ था के स्थान पर छा/छै/ छी का प्रयोग किया है। बोलियों को समाज मुखलाघव के सिद्वांत के तौर पर इस्तेमाल करता है लेकिन इसे भाषा के मूल स्वरूप पर प्रश्नविन्ह के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। क्या मुंबई में बोली जाने वाली हिन्दी और पटना में बोली जाने वाली हिन्दी में कोई अंतर नहीं है? क्या किशोरवय लड़कियों में अत्यधिक लोकप्रिय रहे बार्बरा कार्टलैण्ड के उपन्यासों की अंग्रेजी भाषा को नीरद सी. चैधरी की क्लासिक अंग्रेजी के साथ रखा जा सकता है?
राशिद आरिफ का एक शेर है -‘‘ मेरी अल्लाह से बस इतनी दुआ है राशिद / मैं जो उर्दू में वसीअत लिखूँ, बेटा पढ़ ले। ’’ राजस्थान के करोड़ों राजस्थानी भाषी भी ऐसा ही कोई सपना संजोते हैं तो क्या यह उनका अधिकार नहीं है?
38 ए 30, महावीर नगर-विस्तार,कोटा (राजस्थान)

Sunday, April 11, 2010

राजस्थानी को बचाना जरूरी

समाचार सन्दर्भ- राजस्थानी को बचाना जरूरी
(समाचार पढऩे के लिए क्लिक करें।)

जनपद री बोल्यां है मिणियां,

माळा राजस्थानी।

-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी

मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों ने अपने बयानों में राजस्थानी को बचाना जरूरी माना है और दबी जुबान में कुछ शंकाएं भी प्रकट की हैं, जो कि पूर्णतया बेमानी और आधारहीन हैं। यह उनकी भाषाई समझ के दिवालिएपन का द्योतक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी को चिंता है कि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि राजस्थानी भाषा किसे कहा जाए, क्योंकि हर क्षेत्र में अलग-अलग बोलियां हैं। हम राजस्व मंत्री महोदय को याद दिलवाना चाहते हैं कि बोलियां किसी भी भाषा की समृद्धता की सूचक होती हैं। दुनिया के समस्त भाषाविद यह मानते हैं कि जिस भाषा में जितनी अधिक बोलियां होंगी वह उतनी ही समृद्ध होगी। बिना अंगों के शरीर की तरह से होती है बिन बोलियों के भाषा। भाषा अंगी और बोलियां अंग होती हैं। हिन्दी की अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, ब्रज, बांगरू, खड़ी, कन्नौजी, मैथिली आदि बोलियां ही तो हैं। हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में अवधी के तुलसी, ब्रज के रसखान और सूर, मैथिली के विद्यापति, सधुक्कड़ी के कबीर आदि गर्व के साथ पढ़ाए जाते हैं। भाषाई विभिन्नता के बावजूद भी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी के आधुनिक गद्य लेखकों के रूप में प्रसिद्ध हैं। पंजाबी की पोवाधि, भटियाणी, रेचना, सेरायकी, मांझी, दोआबी, अमृतसरी, जलंधरी आदि कितनी ही बोलियां हैं और वह विश्वभर में सम्मानित है। इसी भांति राजस्थानी की मेवाती, मेवाड़ी, हाड़ोती, ढूंढाड़ी, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियों के बावजूद लेखन के स्तर पर एक ही भाषाई रूप प्रचलित है। अंचल विशेष के प्रभाव से कहीं-कहीं विविधता नजर आती है तो वह कमजोरी नहीं भाषा की, खासियत है। साहित्य के लिए यही अनिवार्य शर्त होती है कि उसमें हर स्तर पर लेखक का परिवेश बोलना चाहिए। हम माननीय हेमारामजी से निवेदन करना चाहते हैं कि राजस्थानी भाषा में प्रकाशित होने वाली दर्जन-भर पत्र-पत्रिकाएं अपने घर पर मंगवाएं। ग्यारहवीं से लेकर एम.. तक की पढ़ाई में शामिल राजस्थानी साहित्य की पाठ्यपुस्तकें पढ़कर देखें। बाजार में उपलब्ध राजस्थानी लोकगीतों के केसेट्स ऑडियों-वीडियो सीडी घर पर लाकर कभी फुरसत में सुना करें। और फिर अपना वही सवाल दोहराएं। राजस्थानी के अनुभवी और विद्वान लेखकों ने पाठ्यपुस्तकें ऐसी तैयार की हैं कि उनमें हर विद्यार्थी को अपनेपन की महक आती है। सिंहासन पर बैठकर आदमी अपनी जमीन से कट जाता है और किसी विषय में अल्पज्ञानी होते हुए भी बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगता है।
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री भरतसिंह की कमोबेश यही चिंता है जिसका जवाब ऊपर की पंक्तियों में चुका है, मगर उनके इस बयान से हमें घोर आपत्ति है कि हिन्दी और अंग्रेजी ऐसी भाषाएं हैं जिसे हर क्षेत्र का व्यक्ति सहजता से समझ सकता है। माननीय भरतसिंह जी, आप अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन्हीं भाषाओं में वोट क्यों नहीं मांगते? क्योंकि आपकी वोटर-जनता तो इन्हें सहजता से समझती है। घर के शादी-समारोहों, व्रत-त्योहारों और उत्सवों पर भी इन्हीं भाषाओं के गीत गाए जाते होंगे आपके यहां? हाड़ोती के लोग अगर हिन्दी और अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं तो घर-परिवार में नहीं। जहां जरूरत हो इनकी वहां किया भी जाना चाहिए। राजस्थानी का सम्मान करने का मतलब किसी अन्य भाषा की अवहेलना नहीं होता, सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना चाहिए। हाड़ोती अंचल के बहुत-से आयोजनों में जाने का मौका मिला है। ठेठ हाड़ोती में बातचीत करते हुए देखता रहा हूं और मंचों से बोलते हुए भी सुना है मैंने लोगों को। बहुत-से लेखक मित्रों यथा- अतुल कनक, प्रहलाद सिंह राठौड़, डॉ. शांति भारद्वाज राकेश, गिरधारी लाल मालव आदि से फोन पर बातचीत भी ठेठ राजस्थानी भाषा और बाकायदा उनके हाड़ोती लहजे में होती है। माननीय भरतसिंहजी, हम जानते हैं और इसलिए आपकी प्रशंसा सुन चुके हैं कि आप जनसभाओं को ठेठ हाड़ोती में सम्बोधित करते हैं, फिर आज आपने यह बयान दिया है तो हमें बड़ा अचरज हो रहा है।
पूर्व शिक्षामंत्री कालीचरण सराफ को चिंता है कि राजस्थानी लागू होने से वैश्विकरण के दौर में हम पीछे रह जाएंगे। तो सवाल यह उठता है कि भारत के लगभग हर प्रांत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती है और राजस्थान में नहीं। बताइए वे प्रान्त कितने' पीछे रह गए और राजस्थान के बच्चों से उनकी मातृभाषा छीनकर आपने कितना' आगे निकाल दिया? गांधीजी ने अपने अनुभवों के आधार पर जो लेख लिखे उनमें स्पष्ट किया कि जितनी अंग्रेजी और फारसी बालक अन्य माध्यम से चार साल में सीखता है वही अपनी मातृभाषा के माध्यम से एक बरस में सीख सकता है। वैश्विकरण के दौर में आप बच्चों को अगर अंग्रेजी सिखाना चाहते हैं तो वह मातृभाषा के माध्यम से ही सिखाइए और उसकी सीखने की गति तो देखिए। दुनियाभर के शिक्षाविद कोई अंधेरे में तीर नहीं मार रहे। अपने अनुभवों का निचोड़ पेश किया है उन्होंने। गांधीजी की बात पर गौर फरमाएं- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
और अंत में कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आप सब के लिए-
मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी,
हाड़ोती, मरुवाणी।
सगळां स्यूं रळ बणी जकी बा
भाषा राजस्थानी।
रवै भरतपुर, अलवर अळघा
आ सोचो क्यां ताणी!
हिन्दी री मां, सखी बिरज री
भाषा राजस्थानी।
जनपद री बोल्यां है मिणियां,
माळा राजस्थानी।

कानांबाती : 09602412124

Thursday, April 8, 2010

राजस्थान में राजस्थानी ही हो शिक्षा का माध्यम

राजस्थान में राजस्थानी ही हो शिक्षा का माध्यम

गलती सुधारने का सुनहरा अवसर

गांधी जी के शब्द- 'जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा
में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।'
त्रिगुण सेन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए। दूसरी ओर राजस्थान के शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल का बचकाना बयान अखबारों में प्रकाशित हुआ है कि फिलहाल राज्य में हिन्दी ही मातृभाषा है। जबकि मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही हमारी मातृभाषा होती है। मंत्री महोदय के बयान पर तरस आता है और बरबस ही उनके लिए कुछ सवाल जेहन में खड़े हो जाते हैं। माननीय मंत्री महोदय भी इसी राज्य के हैं। क्या उनकी मातृभाषा हिन्दी है? क्या उन्होंने अपनी मां से हिन्दी भाषा में लोरियां सुनीं। हिन्दी में ही उनके घर पर विवाह आदि उत्सवों के गीत गाए जाते हैं? हिन्दी में ही वे वोट मांगते हैं? जनता से संवाद हिन्दी में करते हैं? जिस महानुभव को महज इतना-सा अनुभव नहीं, उन्हें राजस्थान के शिक्षा मंत्री बने रहने का कोई हक नहीं।
आजादी के पश्चात राजस्थान में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में जो गलत निर्णय हुआ उस गलती को सुधारने का अब एक सुनहरा अवसर आया है और राजस्थान की सरकार अगर गांधीजी के विचारों का तनिक भी सम्मान करती है तो प्रदेश में तत्काल मातृभाषा के माध्यम से अनिवार्य शिक्षा का नियम लागू कर देना चाहिए। राजस्थान के शिक्षा-नीति-निर्धारकों को गांधीजी के इन विचारों पर अमल करना चाहिए- 'शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए, और प्रांतीय भाषाओं को उनका वाजिब स्थान मिलना चाहिए। यह जो काबिले-सजा बर्बादी रोज-ब-रोज हो रही है, इसके बजाय तो अस्थाई रूप से अव्यवस्था हो जाना भी मैं पसंद करूंगा।' अपने व्यक्तिगत अनुभव से गांधीजी को यह पक्का विश्वास हो गया था कि शिक्षा जब तक बालक को मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती, तब तक बालक की शक्तियों का पूरा विकास करने और उसे अपने समाज के जीवन में पूरी तरह सहयोग देने लायक बनाने का अपना हेतु भलीभांति सिद्ध नहीं कर पाती। भारत कुमारप्पा के संपादन में गांधीजी के विचारों पर आधारित 'शिक्षा का माध्यम' नामक पुस्तिका में उनके शब्द हैं, 'मातृभाषा मनुष्य के विकास के लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना छोटे बच्चे के शरीर के विकास के लिए मां का दूध। बच्चा अपना पहला पाठ अपनी मां से ही सीखता है। इसलिए मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़कर दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं।' गांधीजी को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा गुजराती में नहीं मिली। उन्होंने लिखा कि जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायन शास्त्र और ज्योतिष सीखने में उन्हें चार साल लगे, अंग्रेजी के बजाय गुजराती में पढ़ा होता तो उतना एक ही एक साल में आसानी से सीख लिया होता। यही नहीं गांधीजी ने माना कि गुजराती माध्यम से पढऩे पर उनका गुजराती का शब्दज्ञान समृद्ध हो गया होता और उस ज्ञान का अपने घर में उपयोग किया होता। गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि मातृभाषा के अलावा अन्य माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक और उसके कुटुम्बियों के बीच एक अगम्य खाई निर्मित हो जाती है। 'हरिजन सेवक' और 'यंग इंडिया' नामक पत्रों में गांधीजी ने इस मुद्दे को लेकर अनेक लेख लिखे। मातृभाषा को उन्होंने जीवनदायिनी कहा और उसके सम्मान के लिए हर-सम्भव प्रयास की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
काबिले-गौर बात यह भी है, जिसमें गांधीजी ने लिखा- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।'
राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, गुजराती या हिन्दी आदि माध्यमों से शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक बालकों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की सुविधा भी मिलनी चाहिए।

लेखक हिन्दी के व्याख्याता और राजस्थानी के साहित्यकार हैं।
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