Saturday, September 10, 2011

राजस्थानी के रसूल हमजातोव

11 सितंबर
सेठिया जयंती विशेष


राजस्थानी के रसूल हमजातोव
 
-रामस्वरूप किसान


सेठिया राजस्थानी के रसूल हमजातोव हैं। जिन्हें अपनी मां-भाषा व मां-भूमि से उतना ही प्रेम है, जितना रसूल को अपनी मां-भाषा ‘अवार’ व मां-भूमि दागिस्तान से।
    जो स्थान आधुनिक हिंदी कविता में निराला, नागार्जुन, केदार व त्रिलोचन का है वही राजस्थानी कविता में कन्हैयालाल सेठिया को प्राप्त है। जिस तरह हिंदी के इन बड़े कवियों ने भारतीय काव्य परम्परा के दायरे में रहकर अपनी कविता को शिखर तक पहुंचाया है, ठीक उसी तरह सेठिया ने राजस्थानी कविता को अपनी माटी से जोड़े रखा है। उनका काव्य-फलक बहुत व्यापक और विस्तृत है। उनके काव्य में मरूभूमि (राजस्थान) अपने समग्र रूप मंे चित्रित हुई है। मरूप्रदेश के किसी भी आयाम को उन्होंने स्पर्श किए बिना नहीं छोड़ा। यहां का भूगोल, संस्कृति, इतिहास, राजनीति, अध्यात्म व लोकजीवन उनकी कविताओं में प्रवेश करता दिखता है। सेठिया असल में बड़े कवि हैं। राजस्थानी के जातीय कवि। क्योंकि इनकी कविताओं में सब कुछ राजस्थानी है। जिन्हें पढ़ते हुए लगता है मानो हम राजस्थान की आत्मा में डुबकी लगा रहे हैं। इनकी कविताएं पाठक को राजस्थान के अनदेखे कोनों की सैर करवाती हैं।
    सेठिया ने तुकांत और अतुकांत दोनों तरह की कविताएं लिखीं। राजस्थानी चिंतन व भावबोध पर आधारित इनकी कविताएं सरलता, सहजता व सरसता के लिए विशेष जानी जाती हैं। ‘कुण जमीन रो धणी’, ‘पातळ’र पीथळ’ अर ‘धरती धोरां री’ जैसी अमर कविताएं लिखकर उन्होंने बड़े कवि होने का प्रमाण दिया है। ‘धरती धोरां री’ तो राजस्थानी का राष्ट्रगीत-सा लगता है। यह कविता विदेशों में भी बहुत सराही गई है।
    सही मायनों में सेठिया जनकवि हैं। इनके पास जो लोकानुभव है, वह अद्भुत है। जिस शिद्दत से लोकपीड़ा को उन्होंने पकड़ा वह अन्यत्र विरल है। कृषक-शोषण के विरुद्ध आजादी से पूर्व, रजवाड़ों के वक्त ‘कुण जमीन रो धणी’ जैसी क्रांतिकारी कविता एक जनकवि ही लिख सकता है। इनकी कविताओं में लोक अपने सभी रूपों में आया है। लोक के अद्भुत मर्मज्ञ थे वे। अपनी राजस्थानी कविताओं के लगभग एक हजार पृष्ठों मंे लोक के भिन्न-भिन्न रूपों को जिस तरह से सेठिया ने चित्रित किया है, वह संभवतया अन्य भारतीय भाषाओं में दुर्लभ है। जिस तरह सूरदास ने बाल-मनोविज्ञान का कोना-कोना झांक कर देखा था उसी तरह सेठिया ने भी पूरे लोक को छान डाला था। प्रायः जो अधिक लिखते हैं, श्रेष्ठ नहीं लिख पाते। परन्तु सेठिया पर यह बात लागू नहीं होती। उन्होंने बहुत लिखा और श्रेष्ठ लिखा। रमणिया रा सोरठा, गळगचिया, मींझर, कूंकूं, लीलटांस, धर कूंचां धर मजलां, मायड़ रो हेलो, सबद, सतवाणी, अघोरी काळ, दीठ, लीकलकोळिया व हेमाणी इनके राजस्थानी कविता संग्रह हैं। हिंदी में भी इनके अठारह तथा उर्दू में एक संग्रह प्रकाशित हुआ। इन सब में यहां का जनजीवन बोलता है। ये पुस्तकें लोकजीवन का दस्तावेज हैं। इनमें लोगों के राग-रंग, सुख-दुख, जीवण-मरण, तीज-त्योहार सब दर्ज हैं। सेठिया राजस्थानी के रसूल हमजातोव हैं। जिन्हें अपनी मां-भाषा व मां-भूमि से उतना ही प्रेम है, जितना रसूल को अपनी मां-भाषा ‘अवार’ व मां-भूमि दागिस्तान से। मातृभाषा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता न मिलने की पीड़ उन्हें अंत तक सालती रही। ‘मायड़ रो हेलो’ संग्रह की हर कविता में उनकी यही पीड़ प्रकट हुई है। उन्होंने इसे लोकतंत्र की हानि बताया- ‘अतै बडै जनबळ री मायड़/ भाषा राजस्थानी/ नहीं मानता इण नै दी आ/ लोकतंत्र री हाणी।’    
    सेठिया ने अपनी कविताओं में राजस्थान को कमाया है। उसकी हर चीज को सुरक्षित रखने का भरसक प्रयत्न किया है। प्रलय के बाद भी बड़े कवि की कृतियों में देश सुरक्षित रहता है और सेठिया ऐसे ही बड़े कवि हैं जिनके मतीरे का रस चखने भर से हरि-रस तक फीका लगने लगता है।
-लेखक राजस्थानी के वरिष्ठ कवि-कथाकार हैं जो किसानी करते और साहित्य रचते हैं।

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