जुझारू पत्रकार साथी विकास सचदेवा ने गत दिनों अपनी फेसबुक वाल पर एक चर्चा का सूत्रपात किया...जो काफी सार्थक रही और एक विचार खासतौर से उभर कर आया कि राजस्थानी भाषा को मान्यता की मांग वाजिब है और इसके लिए रणनीति बनाकर आन्दोलन किया जाना चाहिए...विकास जी का बेहद आभार। चर्चा को मूल स्वरुप में ही यहाँ संरक्षित कर रहे हैं....सत्यनारायण
गलत परम्परा के खिलाफ एक विचार
पिछले कुछ समय से राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए मुहिम चल रही है॥ इस अभियान से सम्बंधित अनेक समाचार और आलेख पढने के बावजूद मैं इस मांग का औचित्य नही समझ पाया.. दरअसल, राजस्थानी एक भाषा न होकर अनेक बोलियों का समूह है.. ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल है कि मान्यता किस बोली को दी जावे..?? क्यू कि पग-पग पर बोली बदल रही है और बदलते-बदलते इसका स्वरूप इतना विस्तृत हो चला है कि संवैधानिक रूप से इसे भाषा कि मान्यता दे पाना संभव नही है.. दूसरा पहलू यह भी है कि यदि ऐसा होता है तो यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा कि शुरुआत होगी, जिसे किसी भी सूरत में स्वीकार किया जाना उचित नही है.. यदि इस मुहिम के अगुवा राजस्थानी से इतना ही प्यार करते हैं तो कम से कम उन्हें एक मंच पर आकर इसके एक स्वरूप का खाका तो तैयार करना ही चाहिए, ताकि उस पर विचार करना आवश्यक समझा जाए.. अन्यथा रोज-रोज खबरे छपने का कोई मतलब नही है.. यहाँ यह सपष्ट करना आवश्यक है कि मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी भाषा के खिलाफ या पक्ष में नही हूँ.. यह विचार आपके सामने रखने का उधेश्य महज स्वस्थ परिचर्चा करना है...
Raj Jain Kuchh parampraayen bilkul galat nahi hoti VIKAS JI...
Ye to bas ek bhasha vishesh ko banaye rakhne ki muhim bhar hai,
Kya hume kisi bhi baat ko khule dil se swikaar nahi karna chahiye???
Raj Jain khair har insaan ko apne-apne vichar rakhne ka haq hai...
Satyanarayan Soni
---ऐसी किसी एक भाषा का नाम बताओ जिसमें बोलियाँ नहीं हैं..... बिना अंग के शारीर नहीं होता, बिना बोली के भाषा..भाषा होने के की पहली और आवश्यक शर्त है यह..
---राजस्थानी का सर्वमान्य रूप सर्वविदित है... आप आइये राजस्थानी साहित्य तो पढ़िए....लोकग...ीत सुनिए....दुनिया की किसी भाषा में एकरूपता नहीं होती...विविधता जरूरी भी होती है, भाषा विकास के लिए...मगर जहाँ जरूरत हो वहां राजस्थानी में है..
राजस्थानी भाषा गत 30 वर्षों से माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा राजस्थान स्थित विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रम में वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल है। विश्वविद्यालयों में दशकों से राजस्थानी विभाग भी स्थापित है। राज्य के बीएड पाठ्यक्रमों में राजस्थानी एक शिक्षण विषय रूप में शामिल है। यूजीसी भी राजस्थानी विषय में वर्ष में दो बार नेट व जेआरएफ की परीक्षाएं करवाती हैं और फैलोशिप प्रदान करती है। इस विषय में राजस्थान तथा राजस्थान से बाहर के कई विश्वविद्यालय पीएच.डी भी करवाते हैं। अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों तथा ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी सहित देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में यह शोध व शिक्षण विषय के रूप में मान्य है, जिसके अंतर्गत हजारों शोध हुए हैं तथा हो रहे हैं। अमेरिका की लायब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस ने राजस्थानी को विशव की तेरह समृद्धत्तम भाषाओँ में शामिल किया है। एनसीईआरटी ने इसे मातृभाषाओं की सूची में शामिल किया है। केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने भी वर्ष 1974 से इस भाषा को मान्यता प्रदान कर रखी है तथा प्रतिवर्ष राजस्थानी साहित्यकारों व अनुवादकों को पुरस्कृत करती है और इस भाषा और साहित्य से संबंधित सेमिनारों का आयोजन करती है। उस रूप को देखने का प्रयास भी कीजिये.....
ख़बरें छपवाने का मोह नहीं... राजस्थानी हमारी माँ है और हम उसका अपमान सहन नहीं कर सकते....बस इसीलिए मीडिया से सहयोग की अपेक्षा रहती है...हमने तो यही सुण रखा है कि मीडिया सच का पक्षधर होता है...
---राजस्थानी का सर्वमान्य रूप सर्वविदित है... आप आइये राजस्थानी साहित्य तो पढ़िए....लोकग...ीत सुनिए....दुनिया की किसी भाषा में एकरूपता नहीं होती...विविधता जरूरी भी होती है, भाषा विकास के लिए...मगर जहाँ जरूरत हो वहां राजस्थानी में है..
राजस्थानी भाषा गत 30 वर्षों से माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा राजस्थान स्थित विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रम में वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल है। विश्वविद्यालयों में दशकों से राजस्थानी विभाग भी स्थापित है। राज्य के बीएड पाठ्यक्रमों में राजस्थानी एक शिक्षण विषय रूप में शामिल है। यूजीसी भी राजस्थानी विषय में वर्ष में दो बार नेट व जेआरएफ की परीक्षाएं करवाती हैं और फैलोशिप प्रदान करती है। इस विषय में राजस्थान तथा राजस्थान से बाहर के कई विश्वविद्यालय पीएच.डी भी करवाते हैं। अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों तथा ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी सहित देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में यह शोध व शिक्षण विषय के रूप में मान्य है, जिसके अंतर्गत हजारों शोध हुए हैं तथा हो रहे हैं। अमेरिका की लायब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस ने राजस्थानी को विशव की तेरह समृद्धत्तम भाषाओँ में शामिल किया है। एनसीईआरटी ने इसे मातृभाषाओं की सूची में शामिल किया है। केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने भी वर्ष 1974 से इस भाषा को मान्यता प्रदान कर रखी है तथा प्रतिवर्ष राजस्थानी साहित्यकारों व अनुवादकों को पुरस्कृत करती है और इस भाषा और साहित्य से संबंधित सेमिनारों का आयोजन करती है। उस रूप को देखने का प्रयास भी कीजिये.....
ख़बरें छपवाने का मोह नहीं... राजस्थानी हमारी माँ है और हम उसका अपमान सहन नहीं कर सकते....बस इसीलिए मीडिया से सहयोग की अपेक्षा रहती है...हमने तो यही सुण रखा है कि मीडिया सच का पक्षधर होता है...
Satyanarayan Soni पोवाधि, भटियानी, रेचना, सेरयाकी, मांझी, दोआबी, मलवाई बोलियों के बिना पंजाबी की कल्पना नहीं की जा सकती, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, ब्रज, बांगरू, कन्नोजी, छतीसगढ़ी, खड़ी आदि बोलियों के बिना ही कैसी हिंदी....?
Satyanarayan Soni यह लेख आपके लिए उपयोगी होगा................
http://aapnibhasha.blogspot.com/2010/04/blog-post_15.html
Satyanarayan Soni
रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. वेल्फील्ड अमेरिका, सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, डॉ. एल.पी. टैसीटोरी, डॉ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या, राहुल सांकृत्यायन, झवेरचंद मेघाणी, सेठ गोविन्द दास और काका कालेलकर जैसे विद्वान जिसे स्वतंत्र तथा ब...ड़े समुदाय की एक समृद्ध भाषा मानते हैं, वह महज किसी व्यक्ति विशेष के कहने से बोली नहीं करार दी जा सकती। बोलियां किसी भी भाषा का शृंगार हुआ करती हैं। इस खूबी को भी खामी करार देना कहां की भलमनसाहत है? यह सवाल तो हिन्दी सहित दुनिया की किसी भी भाषा के लिए उठाया जा सकता है कि दिल्ली-मेरठ में खड़ी बोली बोली जाती है, आगरा-मथुरा में ब्रज, ग्वालियर-झांसी में बुंदेली, फर्रूखाबाद में कन्नौजी, अवध में अवधी, बघेलखंड में बघेली, छतीसगढ़ में छतीसगढ़ी, बिहार में मैथिली और भोजपुरी, मगध में मगही। ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा किसे माना जाएगा?
राजस्थान पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'पोलमपोल' शीर्षक से एक राजस्थानी दोहा एक दशक से भी अधिक समय से देख रहा हूं। शायद ही कोई पाठक हो जो सर्वप्रथम इसे न पढ़ता हो। क्या इसे हाड़ौती, वागड़, ढूंढाड़, मेवात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़, शेखावाटी आदि अंचलों में समान रूप से नहीं समझा जाता? जब यह दोहा समान रूप से समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है तो राजस्थानी की एकरूपता का इससे बड़ा क्या प्रमाण चाहिए? यही नहीं राजस्थानी लोकगीतों के ऑडियो-वीडियो सीडी समस्त अंचलों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। ग्यारहवीं से लेकर एम.ए. तक की पढ़ाई की पाठ्यपुस्तकों की भाषा समस्त अंचलों में एक ही जैसी प्रचलित है। बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण, डूंगरपुर की गवरीबाई, मेड़ता की मीरांबाई, मारवाड़ के समय सुंदर, मेवाड़ के चतुरसिंह और सीकर के किरपाराम खिडिय़ा, बाड़मेर के ईसरदास, अलवर के रामनाथ कविया का काव्य पूरे राजस्थान में सम्मान्य है.
Anil Jandu विकास मेरा बहुत अच्छा और मेरे जेसे ही क्रांतिकारी विचारों वाला दोस्त है...................इसका हर मुद्दा लिक से हट कर और गरमाईश वाला होता हूँ................... पर आज में ''आहत'' हूँ ...| वेसे आपने अंत में लिखा है.......''यह विचार आपके सामने रखने का उधेश्य महज स्वस्थ परिचर्चा करना है''
राजस्थान पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'पोलमपोल' शीर्षक से एक राजस्थानी दोहा एक दशक से भी अधिक समय से देख रहा हूं। शायद ही कोई पाठक हो जो सर्वप्रथम इसे न पढ़ता हो। क्या इसे हाड़ौती, वागड़, ढूंढाड़, मेवात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़, शेखावाटी आदि अंचलों में समान रूप से नहीं समझा जाता? जब यह दोहा समान रूप से समस्त अंचलों में समझा और सराहा जाता है तो राजस्थानी की एकरूपता का इससे बड़ा क्या प्रमाण चाहिए? यही नहीं राजस्थानी लोकगीतों के ऑडियो-वीडियो सीडी समस्त अंचलों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। ग्यारहवीं से लेकर एम.ए. तक की पढ़ाई की पाठ्यपुस्तकों की भाषा समस्त अंचलों में एक ही जैसी प्रचलित है। बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण, डूंगरपुर की गवरीबाई, मेड़ता की मीरांबाई, मारवाड़ के समय सुंदर, मेवाड़ के चतुरसिंह और सीकर के किरपाराम खिडिय़ा, बाड़मेर के ईसरदास, अलवर के रामनाथ कविया का काव्य पूरे राजस्थान में सम्मान्य है.
Anil Jandu विकास मेरा बहुत अच्छा और मेरे जेसे ही क्रांतिकारी विचारों वाला दोस्त है...................इसका हर मुद्दा लिक से हट कर और गरमाईश वाला होता हूँ................... पर आज में ''आहत'' हूँ ...| वेसे आपने अंत में लिखा है.......''यह विचार आपके सामने रखने का उधेश्य महज स्वस्थ परिचर्चा करना है''
Satyanarayan Soni आहत होने की दरकार नहीं.... चर्चा से ही बात बनती है.... आहत को राहत मिलेगी....मुझे भरोसा है............
Om Purohit Kagad वाह सचदेवा जी , वाह ! आप ने ऐसे विषय पर बहस का सूत्रपात कर लिया जिसका आपको आंशिक ज्ञान भी नहीँ । आपने मेरी मातृभाषा का अनजाने मेँ अपमान किया है व आप समानधर्मा भी हैँ इस लिए मैँ आपकी बात का बुरा नहीँ मानता अपितु कामना करता हूं कि आप आज के बा...द अध्ययन अवश्य करेँगे कि भाषा क्या होती है ? बोलियोँ का भाषा मेँ क्या स्थान होता है ? हिन्दी भाषा कैसे बनी ? आज स्थापित एवम आठवीँ अनुसूची मेँ शामिल 22 भाषाओँ मेँ कितनी कितनी बोलियां हैँ ?
- वैसे तो डा.सत्यनारायण सोनी जी नै आपकी शंकाओ का उचित,समुचित व सटीक समाधान कर दिया है । मैँ भी उन्ही संदर्भोँ कुछ ध्यातव्य प्रस्तुत कर रहा हूं । कृपया इसे जानकारी के रूप मेँ लेँ,अन्यथा न लेँ ।
1. राजस्थानी हिन्दी से भी प्राचीन भाषा है । प्रख्यात आलोचक डा. नामवर जी के अनुसार राजस्थानी ने ही हिन्दी को जन्म दिया । हिन्दी मेँ भी 42 बोलियां है ।
2.हर भाषा के दो स्वरूप होते हैँ । एक अकादमिक और दूसरा लोकरंजक यानी बोलचाल वाला । हिन्दी का अकादमिक स्वरूप एक है परन्तु हिन्दी अनेक प्रकार से बोली जाती है ।
3. हर भाषा तब तक अलग अलग तरीके से अपनी समस्त बोलियोँ अपनाई जाती है परन्तु राजमान्यता के बाद सरकार के भाषा विभाग उनका मानक स्वरूप तय करता है और फिर उस मानक स्वरूप को सरकारी कामकाज, शिक्षा, न्यायालय व पत्र पत्रिकाएं काम मेँ लेते हैँ। पंजाबी,गुजराती,मराठी,सिन्धी,तमिल, तेलगु, मलयालम व हिन्दी आदि भाषाओँ मेँ भी ऐसा ही हुआ । हमारे पड़ोसी राज्य पंजाब की पंजाबी भाषा को ही लेँ । पंजाबी मेँ गुरमुखी, निहंगी, पटियालवी, दोआबी, मांझी, होश्यारपुरी, पवादी, भटियाणी,सरायकी आदि 27 बोलियां हैँ । सब बोलियां अलग अलग तरीके से बोली जाती हैँ परन्तु सब को मिला कर मानक स्वरूप तैयार किया गया है । वह है अकादमिक पंजाबी । इसी संदर्भ मेँ राजस्थानी भाषा, इसकी 73 बोलियां तथा भावी मानक स्वरूप को देखेँ ।
4. भाषा का मानक स्वरूप सरकार तय करती है क्यौँ कि उसे अपनी प्रजा के साथ संवाद स्थापित करना होता है व राजकाज को औसत जनभाषा मे करना होता है ।
5. राज्योँ का गठन भाषा के आधार पर हुआ था और राजस्थान का गठन इसकी राजस्थानी भाषा के आधार पर ही हुआ था । जब राजस्थानी भाषा ही नहीँ तो राजस्थान कैसे बन गया ?
6। राजस्थान के साथ भाषा के मामले मेँ आजादी के साथ ही शुरु हो गया था । हिन्दी को पनपाने की जिम्मेदारी डाली गई । मान्यता की मांग तभी से है ।
Satyanarayan Soni चर्चा का सूत्रपात करके जब सूत्रधार ही गायब हो जाता है तो मज़ा नहीं आता......पोस्ट लगे चार घंटे बाद तक इन्तजार करके अब सो रहा हूँ.....सचदेवा जी...!!! गुड नाईट....सब्बा खैर..!!!!
Om Purohit Kagad
7. राजस्थान के नेताओँ को आजादी के बाद कहा गया कि हिन्दी के स्थापित होने के बाद राजस्थानी को आठवीँ अनुसूची मेँ शामिल कर लिया जाएगा । आज हिन्दी तो राजस्थान मेँ स्थापित हो गई मगर हमारी राजस्थानी की मान्यता के लिए आंख दिखाई जा रही है । क्या यह... राजस्थानियोँ के त्याग की सजा है ?
8.आजादी के तुरन्त बाद से राजस्थानियोँ ने राजस्थानी को आठवीँ अनुसूची मे शामिल करने के लिए आंदोलन शुरु कर दिया था जो लगातार 63 वर्षोँ से आज तक जारी है । शायद इतनी अनदेखी किसी भी आंदोलन की नहीँ हुई ।
9. राजस्थानी बोलने वाले 13 हैँ जो आज हिन्दीभाषी माने जाते हैँ। हिन्दी वालोँ को डर है कि यदि राजस्थानी को मान्यता मिल गई तो हिन्दी खत्म हो जाएगी । इसी लिए हिन्दी वाले /नेता राजस्थानी की मान्यता मेँ अडंगा लगा रहे हैँ । राजस्थान को त्याग का पाठ पढ़ाया जा रहा है क्योँ कि राष्ट्रपिता गांधी जी के गृहराज्य गुजरात सहित पुर्व,पश्चिम व दक्षिण का एक भी राज्य हिन्दी की स्थापना हेतु न कभी पहले आगे आए और न आज आगे आ रहे हैँ । बस राजस्थान के करोड़ोँ बच्चोँ को मातृभाषा मेँ शिक्षा से वँचित कर बलि का बकरा बनाया जा रहा है । यह राजस्थानियोँ के साथ खिलवाढ व षड़यंत्र नहीँ तो और क्या है ?
10.दुनियां भर के इतिहासकार, आलोचक,भाषा शास्त्री,भाषा विज्ञानी,शोधार्थी, विश्वविद्यालय राजस्थानी को हिन्दी से प्राचीन,संपूर्ण, अद्वितीय मानते हैँ ।अध्ययन करेँ, यह हमने नहीँ विद्वजन ने कहा है ।
आप से पुनः निवेदन है कि अन्यथा न लेँ । बहस से पीड़ा नहीँ है , अपमान, अवहेलना,प्रायोजन व आरोप से पीड़ा है । आप के विश्लेषण के सकारात्मक चर्चे सुने थे । मुझे आप अध्ययन कर इस बहस को सकारात्मक मौड़ देँगे । आप जानकारी हेतु मोहन आलोक जी से भी सम्पर्क कर लेँ तो समीचीन रहेगा ।
8.आजादी के तुरन्त बाद से राजस्थानियोँ ने राजस्थानी को आठवीँ अनुसूची मे शामिल करने के लिए आंदोलन शुरु कर दिया था जो लगातार 63 वर्षोँ से आज तक जारी है । शायद इतनी अनदेखी किसी भी आंदोलन की नहीँ हुई ।
9. राजस्थानी बोलने वाले 13 हैँ जो आज हिन्दीभाषी माने जाते हैँ। हिन्दी वालोँ को डर है कि यदि राजस्थानी को मान्यता मिल गई तो हिन्दी खत्म हो जाएगी । इसी लिए हिन्दी वाले /नेता राजस्थानी की मान्यता मेँ अडंगा लगा रहे हैँ । राजस्थान को त्याग का पाठ पढ़ाया जा रहा है क्योँ कि राष्ट्रपिता गांधी जी के गृहराज्य गुजरात सहित पुर्व,पश्चिम व दक्षिण का एक भी राज्य हिन्दी की स्थापना हेतु न कभी पहले आगे आए और न आज आगे आ रहे हैँ । बस राजस्थान के करोड़ोँ बच्चोँ को मातृभाषा मेँ शिक्षा से वँचित कर बलि का बकरा बनाया जा रहा है । यह राजस्थानियोँ के साथ खिलवाढ व षड़यंत्र नहीँ तो और क्या है ?
10.दुनियां भर के इतिहासकार, आलोचक,भाषा शास्त्री,भाषा विज्ञानी,शोधार्थी, विश्वविद्यालय राजस्थानी को हिन्दी से प्राचीन,संपूर्ण, अद्वितीय मानते हैँ ।अध्ययन करेँ, यह हमने नहीँ विद्वजन ने कहा है ।
आप से पुनः निवेदन है कि अन्यथा न लेँ । बहस से पीड़ा नहीँ है , अपमान, अवहेलना,प्रायोजन व आरोप से पीड़ा है । आप के विश्लेषण के सकारात्मक चर्चे सुने थे । मुझे आप अध्ययन कर इस बहस को सकारात्मक मौड़ देँगे । आप जानकारी हेतु मोहन आलोक जी से भी सम्पर्क कर लेँ तो समीचीन रहेगा ।
Vinod Saraswat
vikash mahashay, aapki mansa kya hai? samajh nahi aai. aap koi bhashavid hai yaa koi court ke judge, yaa fir rahnuma? spast kare. koi jaan n pehchaan, me tera mehmaan. क्यू कि पग-पग पर बोली बदल रही है और बदलते-बदलते इसका स्वरूप इतना विस्तृत... हो चला है कि संवैधानिक रूप से इसे भाषा कि मान्यता दे पाना संभव नही है॥ दूसरा पहलू यह भी है कि यदि ऐसा होता है तो यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा कि शुरुआत होगी, जिसे किसी भी सूरत में स्वीकार किया जाना उचित नही है.. yeh kya laffaji hai? sab kuchh aapne decide kar liya। or uper se yeh teer ki यह विचार आपके सामने रखने का उधेश्य महज स्वस्थ परिचर्चा करना है... aap iske jariye kya saabit karna chaahte hai. mujhe nahi pata. rahi rajasthani bhasha ki baat to yeh yaha par aadrniya om ji or satya narayan ji ne achhi tarh samjha diya hai. jyada or jaanna chahte ho to fir aapko issi {rajasthani} rang me rangna padega. maathe par issi ka tilak lagaakar jogio ki tarh bhatktnaa padegaa. tab aapko iska sahi gyaan ho paayega. kripya aise behudaa harkato se baaj aaye. bhasha ka maamla bahut sanjeeda hota hai. so soch-samajh kar hi pag dhare to achha rahegaa. is tarh logo ki bhaavnaavo ke saath khilvaad karne ki gustaakhi fir naa kare.
Satyanarayan Soni 13 करोड़ हैं कागद जी....मैं सूधार करद्यूं।
Vinod Saraswat
श्रीमान विकाशजी, आप इस देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में विश्वाश करते हो? और राजस्थान को भारत क़ा हिस्सा मानते हो? तब राजस्थान की विधान सभा के २००३ में राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवी अनुसूची में सामिल करने के सर्व सम्मति से पारित प्रस्ताव प...र ऊँगली उठाने की ध्रिस्टता क्यों कर रहे हो? एक बात और बतादू की राजस्थान की विधान सभा में भाषा को लेकर आज तक एकमात्र यही प्रस्ताव { राजस्थानी भाषा क़ा } पारित किया है। हिंदी तो यहाँ चोर दरवाजे से थोपी गयी है. १९५६ के राज भाषा विधेयक को रातो रात एक अध्यादेश के जरिया लागू किया गया था. लेकिन देश हित में और हिंदी को थोडा सा संबल मिल जाये इस आशा में राजस्थान के लोगो ने इसको मंजूर कर लिया. अब कुछ मुठी भर गैर राजस्थानी लोगो को यह रास नहीं आ रहा है और वो नमक हरामी पर उतर आये है. लेकिन अब हम अपनी मात्र भाषा क़ा अपमान सहन करके चुपचाप नहीं बैठेंगे और अपना हक़ लेकर रहेंगे. इसके लिए जो भी करना होगा हम करेंगे. जै राजस्थान, जै राजस्थानी.
Om Purohit Kagad आ तो सगळा ई जाणै कै १३ करोड़ ई लिख्यो होवैला !फ़गत १३ कदै ई होया करै है काईं ? मोबाइल सूं लिखां तो लाईना साम्ही को आवै नी ! लिखीजै जियां ई लिखीजै !कीं तो माफ़ कर देयाक रो डाक्टर सा’ब।
Satyanarayan Soni भाई जी, ईं बात गी स्याबासी भी तो द्यो के एक-एक आखर आंख्यां मांखर काढ'र हियै उतारयो है...
Jitendra Kumar Soni@विकास जी, आपकी पोस्ट देखी और अहसास हुआ कि आपके विचार अस्पष्टता लिए हुए हैं। आपने लिखा कि " इस अभियान से सम्बंधित अनेक समाचार और आलेख पढने के बावजूद मैं इस मांग का औचित्य नहीं समझ पाया। दरअसल, राजस्थानी एक भाषा न होकर अनेक बोलियों का समूह है॥ ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल है कि मान्यता किस बोली को दी जावे..?? क्यूं कि पग-पग पर बोली बदल रही है और बदलते-बदलते इसका स्वरूप इतना विस्तृत हो चला है कि संवैधानिक रूप से इसे भाषा की मान्यता दे पाना संभव नही है.. दूसरा पहलू यह भी है कि यदि ऐसा होता है तो यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा की शुरुआत होगी, जिसे किसी भी सूरत में स्वीकार किया जाना उचित नही है" इस पर एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि पहली बात तो यह है कि आप भाषा और बोली को समानार्थी समझने की गलती कर रहे हैं ..... ..... बोलियाँ तो हर भाषा में होती हैं और जितनी ज्यादा बोलियाँ होती हैं, वह भाषा उतना ही समृद्धिशाली इतिहास रचती है और अपनी व्यापकता दिखाती है....उदहारण के तौर पर पंजाबी में पोथोहारी, झांगी, पहाड़ी, दोआबी, मालवी, राठी, पोवाधि, भट्टियानी आदि बोलियाँ हैं और सभी अपने आप में शब्द वैशिष्ट्य को रखती हैं... जैसे पंजाबी में अलग-अलग को आपके ही शब्दों में १२ कोस पर ही विभिन्न तरीकों से बोला जाता है जैसे - वाख-वाख, आड्ड-आड्ड, 'अ'लाग-'अ'लाग आदि आदि........तो क्या इससे पंजाबी एक भाषा नहीं रहेगी। राजस्थानी में भी बोलियाँ इसे समृद्ध बनाती हैं........अकेली अंग्रेजी भी अमेरिका और इंग्लेंड में पचास से ज्यादा शाब्दिक और उच्चारण भिन्नता के साथ बोली जाती है। एक बात मुझे हैरत में डालती है कि जिन जिन साथियों को राजस्थानी की मान्यता से दिक्कतें हैं वे ज्यादातर राजस्थानी ही हैं और इसी में ही सोचते-समझते और प्रभावी तरीके से बोलते हैं........अपवाद छोड़ दें तो। जिस भाषा को उसके बोलने वाले ही महत्ता ना दे पा रहे हों, उसकी त्रासदी की कहानी भी फिर किसी और जुबान में ही लिखी जायेगी क्योंकि फिर उस महत्त्वहीन जुबान को ख़त्म होने में देर ही नहीं लगेगी......... कुछ महीने पहले अंडमान की 'बो' भाषा बोलने वाली अंतिम वक्ता का देहावसान हो गया और आने वाले समय में रिकॉर्ड गैलरियां ही उसके बारे में बता पाएंगी........ क्या ऐसा ही राजस्थानी के साथ हम करना चाहते हैं? मेरा मकसद आपकी वैचारिक स्वतंत्रता को तिरस्कृत करना नहीं है, बल्कि यह है कि क्यों नहीं हम सब मिलकर राजस्थानी को उसका मान दिलवाएं जिसकी वो हकदार है.............. आपस में जो लड़े हैं, उनका कभी कोई वाली-वारिस नहीं बचा करता है......
माला टूटी तो मनके बिखर जायेंगे
कुछ इधर जायेंगे तो कुछ उधर जायेंगे
बाग़ से द्रोह करके मिलेगा क्या क्यारियों
जल-पवन-मेह को तरस जाओगे
रूप लूट जायेगा और मेढ़ ढह जाएगी
और वन -संपदा सारी पशु चर जायेंगे
माला टूटी तो मनके बिखर जायेंगे ......
******
आप अभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे होंगे, अगर नहीं तो जब करेंगे तो आप को मालूम पड़ेगा कि देश की प्रतिष्ठित परीक्षा आई.ए.एस. में भी राजस्थानी की मान्यता ना होने का नुकसान उठाना पड़ता है .......थोडा स्पष्ट करना बेहतर होगा। हजारों प्रतियोगी अपनी राज्य / मायड़भाषा के साहित्य को मुख्य परीक्षा में एक विषय के रूप में चुनते हैं, जैसे किसी ने संथाली चुन लिया, किसी ने मराठी या किसी और ने कन्नड़ या तमिल..........इस तरह अपनी मायड़भाषा का साहित्य चुनने से दो बड़े फायदे होते हैं --- पहला तो ये कि जिस जुबान में आप सोचते, समझते, खाते-पीते और बोलते हैं और जिसे अपने परिवेश से इस तरीके से आत्मसात कर चुके होते हैं कि आपको उसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं लगाना पड़ता, और आप कम समय में ज्यादा अंक प्राप्त करके चयनित हो जाते हैं और उच्चतर रैंक प्राप्त करते हैं..दूसरा फायदा यह है कि जब आप अपनी मायड़भाषा में लिखेंगे तो आपके उस भाषाई साहित्य की जांच निश्चित ही आपके राज्य का ही भाषाई विद्वान मूल्याङ्कनकर्त्ता होगा और उसे भी मालूम होगा कि यह कॉपी निश्चित तौर पर उसके ही राज्य के किसी युवक की है और आप मानेंगे ही कि अपने क्षेत्र के प्रति पूर्वाग्रह अंकन को व्यक्तिनिष्ट बना देता है...तमिल में लिखे साहित्यिक पेपर को तमिलियन [ राजस्थान या असम या महाराष्ट्र का मूल्याङ्कनकर्त्ता तो निश्चित ही नहीं होगा ] ही जांचेगा तो सोचिये कि उस प्रतियोगी को मिले अंकों में कितना पूर्वाग्रह होगा। लेकिन किसी राजस्थानी को यह फायदा नहीं मिल सकता है क्योंकि उसे या तो हिंदी साहित्य लेना होगा या फिर अंग्रेजी और अन्य के तो दुर्लभतम उदहारण ही होंगे....लेकिन एक राजस्थानी को राजस्थानी लिखकर जितनी सहूलियत मिलेगी उतनी क्या अंग्रेजी या हिंदी या किसी अन्य भाषाई साहित्य से मिल सकती है। विकास जी, एक अंग्रेजी कहावत है कि "यू स्क्रेच माई बैक एंड आई विल यूअर्स '........ सीधा सा मतलब यह है कि आप जैसे शिक्षित राजस्थानी हमारे साथ होंगे और हमारे साथ इस पवित्र उद्देश्य में हाथ बटाएँगे तो आगे आने वाले समय में मैं, आप, हमारा ही कोई मित्र, भाई, आने वाली पीढियां इसका फायदा उठाएंगी..........और हम कौनसा नाजायज मांग उठा रहे हैं, राजस्थानी का एक समृद्ध साहित्य और गौरवशाली अतीत है, अनेक विश्वविद्यालयों में एक भाषा के रूप में पढ़ाई जा रही है, नेट में यह विषय है, केन्द्रीय साहित्य अकादमी इसमें पुरस्कार दे रही है तो फिर हम मांग क्यों ना उठाएं............ जो अपने हक़ के लिए नहीं लड़ते हैं, वो अपनी गोद में लिए हुए को भी खो देते हैं।
आप गंगानगर से हैं, आप सोचिये कि घडसाना, रावला, सूरतगढ़ के रेतीले गाँवों से प्राइवेट स्नात्तक करने वाले हजारों बेरोजगारों को अगर राजस्थानी या हिंदी/अंग्रेजी में से एक चुनकर अपने परिवेश के ही साहित्य , संगीत, समाज, रीति-रिवाज, सामाजिक समस्याएं, भक्ति आदि पर लिखना हो तो किस में सहजता होगी ? इन्हीं सब बातों को आप अंग्रेजी में लिखकर सहूलियत महसूस करेंगे या अपनी उस माँ बोली में जिनमें आप आधी से ज्यादा चीजें तो शादी विवाह, परिवार, पास-पड़ौस से ही सीख चुके हैं और अभिव्यक्त कर सकते हैं .......
आप दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ रहे हैं, बेहद ख़ुशी की बात है आप मेहनत करें और क्षेत्र का नाम रोशन करें .......... मगर जब आप कामयाब होकर किसी दिन वापिस लौटेंगे तो आपके पड़ौस का बूढ़ा आपको राजस्थानी में ही बोलकर कहेगा -' चोखो बेटा, सूणो काम करयो' या जब आप किसी मित्र से मिलने उसके गाँव में जायेंगे तो वे हिंदी या अंग्रेजी में नहीं उसके परिवार वाले आप पर अपनी मायड़बोली में स्नेह उडेलेंगे !!!
आशा है कि आपका अनमोल सहयोग आपकी मिटटी के कर्ज को उतारने में मदद करेगा ......
जै राजस्थान अ'र जै राजस्थानी !!
जितेन्द्र कुमार सोनी (IAS)
LBSNAA mussoorii
कुछ इधर जायेंगे तो कुछ उधर जायेंगे
बाग़ से द्रोह करके मिलेगा क्या क्यारियों
जल-पवन-मेह को तरस जाओगे
रूप लूट जायेगा और मेढ़ ढह जाएगी
और वन -संपदा सारी पशु चर जायेंगे
माला टूटी तो मनके बिखर जायेंगे ......
******
आप अभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे होंगे, अगर नहीं तो जब करेंगे तो आप को मालूम पड़ेगा कि देश की प्रतिष्ठित परीक्षा आई.ए.एस. में भी राजस्थानी की मान्यता ना होने का नुकसान उठाना पड़ता है .......थोडा स्पष्ट करना बेहतर होगा। हजारों प्रतियोगी अपनी राज्य / मायड़भाषा के साहित्य को मुख्य परीक्षा में एक विषय के रूप में चुनते हैं, जैसे किसी ने संथाली चुन लिया, किसी ने मराठी या किसी और ने कन्नड़ या तमिल..........इस तरह अपनी मायड़भाषा का साहित्य चुनने से दो बड़े फायदे होते हैं --- पहला तो ये कि जिस जुबान में आप सोचते, समझते, खाते-पीते और बोलते हैं और जिसे अपने परिवेश से इस तरीके से आत्मसात कर चुके होते हैं कि आपको उसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं लगाना पड़ता, और आप कम समय में ज्यादा अंक प्राप्त करके चयनित हो जाते हैं और उच्चतर रैंक प्राप्त करते हैं..दूसरा फायदा यह है कि जब आप अपनी मायड़भाषा में लिखेंगे तो आपके उस भाषाई साहित्य की जांच निश्चित ही आपके राज्य का ही भाषाई विद्वान मूल्याङ्कनकर्त्ता होगा और उसे भी मालूम होगा कि यह कॉपी निश्चित तौर पर उसके ही राज्य के किसी युवक की है और आप मानेंगे ही कि अपने क्षेत्र के प्रति पूर्वाग्रह अंकन को व्यक्तिनिष्ट बना देता है...तमिल में लिखे साहित्यिक पेपर को तमिलियन [ राजस्थान या असम या महाराष्ट्र का मूल्याङ्कनकर्त्ता तो निश्चित ही नहीं होगा ] ही जांचेगा तो सोचिये कि उस प्रतियोगी को मिले अंकों में कितना पूर्वाग्रह होगा। लेकिन किसी राजस्थानी को यह फायदा नहीं मिल सकता है क्योंकि उसे या तो हिंदी साहित्य लेना होगा या फिर अंग्रेजी और अन्य के तो दुर्लभतम उदहारण ही होंगे....लेकिन एक राजस्थानी को राजस्थानी लिखकर जितनी सहूलियत मिलेगी उतनी क्या अंग्रेजी या हिंदी या किसी अन्य भाषाई साहित्य से मिल सकती है। विकास जी, एक अंग्रेजी कहावत है कि "यू स्क्रेच माई बैक एंड आई विल यूअर्स '........ सीधा सा मतलब यह है कि आप जैसे शिक्षित राजस्थानी हमारे साथ होंगे और हमारे साथ इस पवित्र उद्देश्य में हाथ बटाएँगे तो आगे आने वाले समय में मैं, आप, हमारा ही कोई मित्र, भाई, आने वाली पीढियां इसका फायदा उठाएंगी..........और हम कौनसा नाजायज मांग उठा रहे हैं, राजस्थानी का एक समृद्ध साहित्य और गौरवशाली अतीत है, अनेक विश्वविद्यालयों में एक भाषा के रूप में पढ़ाई जा रही है, नेट में यह विषय है, केन्द्रीय साहित्य अकादमी इसमें पुरस्कार दे रही है तो फिर हम मांग क्यों ना उठाएं............ जो अपने हक़ के लिए नहीं लड़ते हैं, वो अपनी गोद में लिए हुए को भी खो देते हैं।
आप गंगानगर से हैं, आप सोचिये कि घडसाना, रावला, सूरतगढ़ के रेतीले गाँवों से प्राइवेट स्नात्तक करने वाले हजारों बेरोजगारों को अगर राजस्थानी या हिंदी/अंग्रेजी में से एक चुनकर अपने परिवेश के ही साहित्य , संगीत, समाज, रीति-रिवाज, सामाजिक समस्याएं, भक्ति आदि पर लिखना हो तो किस में सहजता होगी ? इन्हीं सब बातों को आप अंग्रेजी में लिखकर सहूलियत महसूस करेंगे या अपनी उस माँ बोली में जिनमें आप आधी से ज्यादा चीजें तो शादी विवाह, परिवार, पास-पड़ौस से ही सीख चुके हैं और अभिव्यक्त कर सकते हैं .......
आप दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ रहे हैं, बेहद ख़ुशी की बात है आप मेहनत करें और क्षेत्र का नाम रोशन करें .......... मगर जब आप कामयाब होकर किसी दिन वापिस लौटेंगे तो आपके पड़ौस का बूढ़ा आपको राजस्थानी में ही बोलकर कहेगा -' चोखो बेटा, सूणो काम करयो' या जब आप किसी मित्र से मिलने उसके गाँव में जायेंगे तो वे हिंदी या अंग्रेजी में नहीं उसके परिवार वाले आप पर अपनी मायड़बोली में स्नेह उडेलेंगे !!!
आशा है कि आपका अनमोल सहयोग आपकी मिटटी के कर्ज को उतारने में मदद करेगा ......
जै राजस्थान अ'र जै राजस्थानी !!
जितेन्द्र कुमार सोनी (IAS)
LBSNAA mussoorii
Ajay Kumar Soni विकास जी भोत मान राख्यो है थे भाषा रो.....राजस्थानियाँ रे हिये पर चोट तो ना मारो.......
Ratan Singh Shekhawat
जहाँ तक भाषा में एकरूपता की बात है भारत में बोली जाने वाली हरेक क्षेत्रीय भाषाओँ में किसी में भी एक रूपता नहीं है हर पंद्रह बीस किलोमीटर बाद भाषा में थोडा बदलाव आ जाता है फिर भी उन्हें संविधान की आठवीं सूचि में सम्मिलित किया गया है तो राजस्...थानी भाषा को सम्मिलित क्यों नहीं किया जा सकता | जिस दिन राजस्थानी भाषा को मान्यता देकर इसे राजस्थान की स्कूलों में पढाया जाने लगेगा यह एकरूपता अपने आप आजायेगी |
इसलिए राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर जो मांग की जा रही है उसमे कहीं कोई गलत नहीं है |
Ratan Singh Shekhawat इस अभियान से सम्बंधित अनेक समाचार और आलेख पढने के बावजूद मैं इस मांग का औचित्य नही समझ पाया.
@ आपके द्वारा औचित्य समझना जरुरी है या १३ करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान करना जरुरी है ?
Ratan Singh Shekhawat यदि ऐसा होता है तो यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा कि शुरुआत होगी
@ १३ करोड़ लोगों की मातृभाषा की मांग स्वीकार करना आपको गलत परम्परा नजर आती है | पर हमें तो आप द्वारा उठाया इस तरह का मुद्दा ही गलत लग रहा है | और सबसे गलत बात ये कि बहस शुरू कर खुद गायब ही हो लिए ,अरे बहस शुरू की है तो इसका सामना भी करना सीखो |
इसलिए राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर जो मांग की जा रही है उसमे कहीं कोई गलत नहीं है |
Ratan Singh Shekhawat इस अभियान से सम्बंधित अनेक समाचार और आलेख पढने के बावजूद मैं इस मांग का औचित्य नही समझ पाया.
@ आपके द्वारा औचित्य समझना जरुरी है या १३ करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान करना जरुरी है ?
Ratan Singh Shekhawat यदि ऐसा होता है तो यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा कि शुरुआत होगी
@ १३ करोड़ लोगों की मातृभाषा की मांग स्वीकार करना आपको गलत परम्परा नजर आती है | पर हमें तो आप द्वारा उठाया इस तरह का मुद्दा ही गलत लग रहा है | और सबसे गलत बात ये कि बहस शुरू कर खुद गायब ही हो लिए ,अरे बहस शुरू की है तो इसका सामना भी करना सीखो |
Om Purohit Kagad
पिछले 63 वर्षोँ से हमारी जीभ पर ताला लगा रखा है । दिल की दिल मे घुट रही है । थोड़ी बहुत मुखपट्टी हटा कर बोलते हैँ तो हमेँ ही कोसा जाता है कि क्यूं बोले ? कहने को बहुत कुछ है मगर सुनने वाला कोई नहीँ । घायल के घावोँ को कुरेदने वाले बहुत है मगर... मल्हम लगाने वाला कोई नहीँ ।
आज राजस्थान के नेता राजस्थानी मेँ बोल कर वोट तो बटोर लेते हैँ मगर पंचायत,पंचायत समिति, जिला परिषद,विधान सभा, राज्य सभा और लोक सभा मेँ राजस्थानी बोल नहीँ सकते । आज 28 मेँ से 22 राज्योँ के सांसद जिस भाषा मेँ वोट मांगते है उसी भाषा को सदनोँ मेँ बोलते हैँ । राजस्थान के जनप्रतिनिधि ही भाग्यहीन हैँ जो अपनी मातृभाषा को जनता के बीच ही बोल पाते हैँ अन्य विधायी मंचो पर नहीँ । पूर्व, पश्चिम व धुर दक्षिण से आए IAS,IPS, प्रशासन चला रहे हैँ जो राजस्थानियोँ की भाषा ही नहीँ जानते वे उनकी मनगत को भला क्या जानेँगे ? राजस्थान मेँ शासन, प्रशासन व जनता के बीच भाषा के कारण भयंकर संवादहीनता है जो संघीय लोकतंत्र के लिए घातक है । आज राजस्थान के न्यायालयोँ मेँ अंग्रेजी व हिन्दी मेँ काम हो रहा है । ठेट ग्रामीण वादी परिवादी ना बहस को समझता है न बहस मेँ भाग ले सकता है । भले ही उसके सामने उसके विरुद्ध ही क्यों न बोला जा रहा हो । राजस्थान मेँ चंद अंग्रेजीदां व हिन्दीदां तथाकथित पढ़े लिखे लोग ही ब्यूरोक्रेसी का सामना कर पाते हैँ मगर ठेट ग्रामीण राजस्थानी ब्यूरोक्रेट्स के सामने जाने से कतराता है । जब वह अपनी बात ही नहीँ कह पाता और कोई उसके दिल की सुनता नहीँ तो उसे क्या खाक न्याय मिलेगा ? आज राजस्थान सरकार का प्रचारतंत्र अंग्रेजी व हिन्दी मेँ सरकारी योजनाओँ का प्रचार करता हैँ जिनके नतीजे ठनठनगोपाल ! यही अगर राजस्थानी मे हो तो आम तक योजनाएं पहुंचेँगी और हर राजस्थानी मुखर हो कर उनका लाभ उठा पाएगा ।
बड़ा अजीब लगता है जब राजस्थान का शासन सचिव व जिला कलक्टर पूछता है कि ये अड़ुआ,राध, बूर, सीवण,धामण,इरणा,कंकेड़ा, कूमटा,केरड़ा,केल, छनाबड़ी,मामालूणी,कागा रोटी,पील,गूंदा,ढिँचकनाळियो, बुगचो,फीँच,साथळ, पिँडी,रूं,झिँडियो, क्या होता है ?
राजस्थानी भाषा का शब्दकोश विश्व का सबसे बड़ा भाषाई शब्दकोश है जिसे क्या जानेँ बेचारे गैरराजस्थानी IAS व IPS । इसी लिए बेचारे राजस्थानियोँ के मनोरथ व दुख दर्द दिल मेँ ही घुटते रहते हैँ । बस इसी लिए हर राजस्थानी अपनी मातृभाषा को आठवीँ अनुसूची मेँ शामिल करने की मांग करते।
आज राजस्थान के नेता राजस्थानी मेँ बोल कर वोट तो बटोर लेते हैँ मगर पंचायत,पंचायत समिति, जिला परिषद,विधान सभा, राज्य सभा और लोक सभा मेँ राजस्थानी बोल नहीँ सकते । आज 28 मेँ से 22 राज्योँ के सांसद जिस भाषा मेँ वोट मांगते है उसी भाषा को सदनोँ मेँ बोलते हैँ । राजस्थान के जनप्रतिनिधि ही भाग्यहीन हैँ जो अपनी मातृभाषा को जनता के बीच ही बोल पाते हैँ अन्य विधायी मंचो पर नहीँ । पूर्व, पश्चिम व धुर दक्षिण से आए IAS,IPS, प्रशासन चला रहे हैँ जो राजस्थानियोँ की भाषा ही नहीँ जानते वे उनकी मनगत को भला क्या जानेँगे ? राजस्थान मेँ शासन, प्रशासन व जनता के बीच भाषा के कारण भयंकर संवादहीनता है जो संघीय लोकतंत्र के लिए घातक है । आज राजस्थान के न्यायालयोँ मेँ अंग्रेजी व हिन्दी मेँ काम हो रहा है । ठेट ग्रामीण वादी परिवादी ना बहस को समझता है न बहस मेँ भाग ले सकता है । भले ही उसके सामने उसके विरुद्ध ही क्यों न बोला जा रहा हो । राजस्थान मेँ चंद अंग्रेजीदां व हिन्दीदां तथाकथित पढ़े लिखे लोग ही ब्यूरोक्रेसी का सामना कर पाते हैँ मगर ठेट ग्रामीण राजस्थानी ब्यूरोक्रेट्स के सामने जाने से कतराता है । जब वह अपनी बात ही नहीँ कह पाता और कोई उसके दिल की सुनता नहीँ तो उसे क्या खाक न्याय मिलेगा ? आज राजस्थान सरकार का प्रचारतंत्र अंग्रेजी व हिन्दी मेँ सरकारी योजनाओँ का प्रचार करता हैँ जिनके नतीजे ठनठनगोपाल ! यही अगर राजस्थानी मे हो तो आम तक योजनाएं पहुंचेँगी और हर राजस्थानी मुखर हो कर उनका लाभ उठा पाएगा ।
बड़ा अजीब लगता है जब राजस्थान का शासन सचिव व जिला कलक्टर पूछता है कि ये अड़ुआ,राध, बूर, सीवण,धामण,इरणा,कंकेड़ा, कूमटा,केरड़ा,केल, छनाबड़ी,मामालूणी,कागा रोटी,पील,गूंदा,ढिँचकनाळियो, बुगचो,फीँच,साथळ, पिँडी,रूं,झिँडियो, क्या होता है ?
राजस्थानी भाषा का शब्दकोश विश्व का सबसे बड़ा भाषाई शब्दकोश है जिसे क्या जानेँ बेचारे गैरराजस्थानी IAS व IPS । इसी लिए बेचारे राजस्थानियोँ के मनोरथ व दुख दर्द दिल मेँ ही घुटते रहते हैँ । बस इसी लिए हर राजस्थानी अपनी मातृभाषा को आठवीँ अनुसूची मेँ शामिल करने की मांग करते।
Om Purohit Kagad
हमारे यहां 1971 मेँ किसान आंदोलन हुआ । इस आंदोलन मेँ 100% किसान जुड़े । कई शहीद हुए । कई जमीनी जननेता उभरे । अधिकांश अनपढ़ या कम पढ़े लिखे । लेकिन जमीनी हकीक़त व पीड़ाओँ से आकंठ रु ब रु । चों. हरी राम, बेगा राम, बीरबल राम , हरीराम आदि आदि उभरे ज...िनकी एक आवाज पर जनता बलिदान के लिए तत्पर रहती थी । इनमेँ से कई सांसद भी बने । मातृभाषा मेँ नहीँ बोल पाने के कारण 5-10 साल तक संसद मेँ मौन बैठे रहे । हिन्दी अंग्रेजी बोलनी आई नहीँ और राजस्थानी बोलने नहीँ दी गई । बोले तो हंसी उड़ाई गई । आज भी हमारे जननायक सांसद बेगाराम व हरीराम जी के मनघड़ंत किस्से चटखारे ले ले कर सुनाए जाते हैँ । यह राजस्थानियोँ का अपमान नहीँ तो और क्या है ? यदि उन्हेँ संसद मेँ राजस्थानी बोलन दी जाती तो वे मंत्रियोँ के छक्के छुड़ा देते । यही कारण है कि हमारे क्षेत्र मेँ केन्द्र प्रवर्तित योजनाओँ का आगमन शून्य है । खटारा रेल है और वह भी छोटी लाइन पर चलती है । न खाद कारखाना है न केन्द्रीय विद्यालय, न फूड पार्क, न पर्यटन विकास । क्या क्या बताऊं ? दक्षिणी राज्योँ के विकास को देख राजस्थान की तुलना कर बड़ा दुख होता है।
Satyanarayan Soni हीयै री साची पीड़ है सा कागद जी आपरी, सचदेवा जी, आओ, म्हे थारै ही घरां थाने ही उडीकां हाँ... नूंतो देय'र छापळग्या थे तो... भूंडी करी नीं म्हारै में...!!
Satyanarayan Soni
सचदेवा जी, मैं आपका आभारी हूँ जो इस मसले पर मुझे अपडेट होने का मौका मिल रहा है.. यहाँ कागद जी और जितेन्द्र जी ने पहली बार कई ऐसे मौलिक और अनछुए पक्षों को रखा है...जिनको जानकर मैं अपनी भाषा को मान्यता न मिलने से होने वाले बड़े नुकसान और अपमा...न को महसूस कर रहा हूँ...मुझमें और ज्यादा जोश भर गया है और अब हम किसी भी कीमत पर अपना यह हक लेकर ही रहेंगे...यह चर्चा आन्दोलन को और अधिक गतिमान करेगी...आप तो इस पूरी चर्चा को छपवाने का प्रबंध करें॥ आप लाइक कर रहे हैं..यह जानकर भी ख़ुशी है..जै राजस्थान, जै राजस्थानी।
Om Purohit Kagad हमारे कोमेंट को लाइक करर हेह ैं इसका मतलब साफ़ है कि भाई सचदेवा का कोई दुराग्रह नहीं लगता !वे हमें आंदोलन के लिए तैयार कर रहे हैं !धन्यवाद सचदेवा जी !
Banwari Saharan Etni bahas ro matlab sara chawah h .... Rajsthani bhash n manyta mil jav...... jarur mil jasi ,sanghras jari rakho...
Satyanarayan Soni बनवारी जी थे हरियाणे में हो तो के होयो आपणी सगळा गी भाषा तो एक ही है... थे ही कोई कमेटी बणाओ नीं हरियाणा में.... पंजाबी हरियाणा में दूजी राजभाषा बणगी कित्ती बढ़िया बात होई...राजस्थानी नै तीसरी तो बणा लेइयो.....
Om Purohit Kagad
हरियाणवी भी राजस्थानी भाषा री ऐक बोली है डा.सत्यनारायण जी सोनी सा । हरियाणवी अर राजस्थानी मेँ कोई फरक नीँ है । आपसरी रा खावणा-पीवणा-बोलणा-पैरणा-ओढणा-रीत-रिवाज ऐक ई है । हरियाणा -पंजाब अर राजस्थान मेँ तो आपस मेँ रोटी बेटी रा नाता रिस्ता है ...। राजस्थानी नै मान्यता मिल्यां पंजाब रा अबोहर,फाजिल्का अर भटिण्डा रै लोगां नै अनै समूळै हरियाणै रै लोगां नै फायदो मिलसी । ऐ भाई आपरै टाबरां नै तीजी भाषा रै रूप मेँ राजस्थानी पढ़ा सकसी । फेर तो बठै रै स्कूल कालेजां मेँ राजस्थानी मेँ 12 वीँ, B.A.,M.A. ,M.PHIL ,PHD करावण रा रास्ता खुलसी - जे लोग चा सी तो !
म्हारी रोटी बेटी राजस्थानी
म्हारी बोटी बोटी राजस्थानी
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas राज मैÓम बात किसी भाषा विशेष या खुले दिल की नहीं है, बल्कि एक ऐसे मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की है, जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में दरपेश आ रहा है।
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas
Sachdeva Vikas
Vinod Saraswat
Sachdeva Vikas Thanx vinod जी
Om Purohit Kagad
म्हारी रोटी बेटी राजस्थानी
म्हारी बोटी बोटी राजस्थानी
Sachdeva Vikas
सबसे पहले इस बात के लिए क्षमा चाहूंगा कि परिचर्चा का विषय रखने के बावजूद मैं निरंतर इस मंच पर उपस्थित नहीं रह पाया। अपरिहार्य कारणों से विगत दो दिन फेसबुक क्या कंप्यूटर पर बैठने का मौका भी नहीं मिल पाया। डॉ. सत्यनारायण सोनी जी से कहना चाहूं...गा कि मैं यहां मौजूदगी दर्ज नहीं करवा पाया, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कहीं भाग गया या गायब हो गया हंू। वैसे भी मैंने कोई ऐसा अपराध नहीं किया है, जिसके दंड के भय से मुझे पलायन करना पड़े। खैर॥ आप सभी का प्रतिक्रियाओं के लिए धन्यवाद.. सिलसिलेवार सभी महानुभावों की बात का प्रतिउत्तर प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं..
Sachdeva Vikas राज मैÓम बात किसी भाषा विशेष या खुले दिल की नहीं है, बल्कि एक ऐसे मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की है, जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में दरपेश आ रहा है।
Sachdeva Vikas
डॉ. सोनी जी, जहां तक राजस्थानी के अपमान की बात है तो मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राजस्थानी सहित मैं तमाम भाषाओं और उन सभी लोगों की अभिव्यक्तियों व हाव-भावों का सम्मान करता हूं, जो ईश्वर की इच्छा के चलते किसी विकलांगता का शिकार होकर भ...ाषा का उपयोग ही नहीं कर पाते। ऐसे में किसी का अपमान करने का अपराध तो मैं कदापि कर ही नहीं सकता, मेरे संस्कार और स्वभाव मुझे ऐसा करने ही नहीं दे सकते। और मीडिया के सच का पक्षधर होने की बात से मैं सहमत नहीं हूं, क्योंकि इस बिरादरी का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद इसकी वर्तमान स्थिति से मैं संतुष्ट नहीं हूं। व्यक्तिगत तौर पर अपनी ओर से इस बात के लिए आश्वस्त करना चाहूंगा कि मैं पत्रकारिता के प्रारंभिक मूल्यों को जेहन में रखकर ही निर्णय लेता हूं...
Sachdeva Vikas जांदू जी, आपकी आत्मीयता और सहमति के लिए तह-ए-दिल से आभार। इस बात के लिए क्षमा चाहूंगा कि मेरी किसी बात ने आपको आहत किया। लेकिन मैं पूर्व में ही स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरा ऐसा कोई मन्तव्य नहीं है। कृपया सहयोग बनाए रखें।
Sachdeva Vikas
कागद जी, प्रणाम। संभवत: यह मेरी आपसे पहली मुलाकात है। इससे पूर्व केवल आपका नाम और आपके क्रियाकलापों के बारे में सुना ही था। मुझे हर्ष है कि किसी भी वजह से सही, आपसे रूबरू होने का अवसर मिला। जहां तक मेरे अज्ञान की बात है, मुझे यह स्वीकार करन...े में कोई लज्जा महसूस नहीं हो रही है कि मेरा भाषा ज्ञान सीमित है॥ लेकिन.. आपसे एक सवाल पूछना चाहंूगा कि सुबह-सवेरे अखबार पढऩे वाले लाखों लोगों में से ऐसे कितने लोग हैं, जो भाषा ज्ञान के मामले में आप जैसे विद्वान हैं..? अन्यथा न लें और यह विचार करें कि जो लोग पिछले कई महीनों से राजस्थानी-राजस्थानी सुन रहे हैं, उनमें से कितने लोग हैं, जो आपकी तरह यह जानते हैं कि राजस्थानी को मान्यता क्यों मिलनी चाहिए। कारण यह है कि आपका अभियान हमेशा अपनों तक ही सीमित रहा है। मैं राजस्थान में रहता हूं, पत्रकारिता से जुड़ा हूं और शायद कई बार आपकी खबरें भी बना चुका हूं लेकिन मुझे ऐसा कोई माध्यम नहीं मिला, जिससे स्पष्ट तौर पर मुझे इस बारे में पता चल पाए कि आखिर राजस्थानी को मान्यता दिलाने के लिए जो अभियान चल रहा है, वह आज तक सफल क्यों नहीं हुआ? क्या आपने कभी इस बात पर विचार करना उचित नहीं समझा कि इतने लंबे संघर्ष और प्रयासों के बावजूद आज तक राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाई। मेरे विचार से कहीं न कहीं हमारी कोशिशों में ही कमी है, जिसके चलते सफलता अभी दूर है। कागद जी...
Sachdeva Vikas
इस परिचर्चा के दौरान जिन महोदय के लहजे ने मुझे हैरान किया है, वे हैं श्रीमान् विनोद सारस्वत जी.. मेरी समझ में राजस्थानी भाषा अपनी विनम्र शैली और दिल को छू लेने वाले शब्दों के लिए विख्यात है.. ऐसे में सारस्वत जी की ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद ...मुझे नहीं थी। और जनाब॥ जहां आप यह कह रहे हैं कि जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान तो यह कहने की गुस्ताखी करूंगा कि मैंने आपको इस परिचर्चा के लिए आमंत्रित नहीं किया, यहां तक कि आप मेरी मित्र सूची में भी नहीं हैं.. तो आप खुद विचार कीजिए कि यहां मेजबान कौन है और मेहमान कौन है..? और जहां तक आदरणीय कागद जी और आदरणीय सोनी जी के स्पष्टीकरण की बात है, उनके सलीके और तरीके से मैं सहमत हंू लेकिन आपने जिस विधा का उपयोग करते हुए मुझे नसीहतें दी हैं, तो निवेदन यह रहेगा कि यदि आप स्वस्थ परिचर्चा के लिए अतिआवश्यक संयम के लिबास को धारण नहीं कर सकते तो शायद आपको यहां अपनी उपस्थिति को लेकर पुर्नविचार करना चाहिए।
Sachdeva Vikas रतनसिंह जी मेरा औचित्य समझना भी उतना ही जरूरी है, जितना 13 करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान करना..
Sachdeva Vikas
जितेंद्रकुमार सोनी जी, नमस्कार। आपकी प्रोफाइल देखकर ज्ञात हुआ कि आप एक आईएएस अधिकारी हंै। मुझे खुशी है कि मेरे द्वारा प्रस्तुत किए गए एक विषय पर बुद्धिजीवियों ने काबिल-ए-तारीफ प्रतिक्रियाएं दी हैं और परिचर्चा को आगे बढ़ाया है। आपको बताना चा...हूंगा कि मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी नहीं कर रहा हूं और निकट भविष्य में भी मेरी ऐसी कोई योजना नहीं है। आपने लिखा है कि अन्य भाषाओं से संबंध रखने वाले मूल्यांकनकर्ताओं का पूर्वाग्रह अपनी भाषा के विद्यार्थियों के प्रति रहता है और इसका नुकसान राजस्थानी भाषा के विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है। यह भी एक गंभीर समस्या है, जिस पर और अधिक विस्तृत तरीके से चर्चा होनी चाहिए। सोनी जी आपके द्वारा दी गई जानकारियों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है, धन्यवाद। शायद, इस मसले पर अपनी मनोस्थिति प्रकट नहीं करने की स्थिति में मेरा आपसे संपर्क संभव नहीं था।
Sachdeva Vikas
डॉ. सोनी जी, जहां तक अपडेट होने की बात है तो आपसे ज्यादा खुशी मुझे मिल रही है कि कम से कम इसी बहाने विषय विशेष के बारे में मुझे नई-नई बातें जानने को तो मिल रही हैं और इसका लाभ हर उस व्यक्ति को मिलेगा, जो इस विषय से संबंध रखता है। लाइक करने ...बात पर यह कहना चाहूंगा कि डॉ। सोनी जी और कागद जी, आप उम्र और अनुभव दोनों में मेरे अग्रज हैं और भले ही मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं लेकिन उनका सम्मान करने में मुझे किसी प्रकार का कोई एतराज नहीं है। और आपकी तरह जै राजस्थान, जै राजस्थानी बोलने में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। कृपया मेरे मन्तव्य को और अधिक गहराई से समझने का प्रयास करें, ताकि मेरे प्रति किसी प्रकार की मिथ्या छवि आपके मनोमस्तिष्क में न बनने पाए।
Sachdeva Vikas
अब तक हुई परिचर्चा और सवालों-जवाबों के बाद मैंने यह महसूस किया है कि यहां केवल वही लोग प्रतिक्रिया देने पहुंचे हैं, जो या तो पूर्व में ही इस अभियान से जुड़े हुए थे या फिर इस आंदोलने के अगुवाओं से सहमति रखते हैं। जरा गौर फरमाइए, तो आप पाएंगे... कि केवल राज जैन मैÓम को छोड़कर ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जो अभियान से अनभिज्ञ हो और उसने इसमें अपनी रुचि दिखाई हो। ऐसे में यह समझा जाना चाहिए कि या तो अन्य लोगों को इस मांग में कोई औचित्य नजर नहीं आता, या वे इसे आवश्यक नहीं मानते, या उनका ज्ञान इस बारे में शून्य है और या फिर उन्हें ऐसा लगता है कि यह सब वर्ग विशेष द्वारा किया जा रहा कार्य है और उन्हें इस संबंध में कोई हस्तेक्षेप नहीं करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो लोग आपके साथ हैं, वे तो आपके साथ हैं ही। मजा तो तब है, जब ऐसे लोग जिनका सीधे तौर पर उस मामले से कोई लेना-देना नहीं है अथवा जो लोग आपके धुर विरोधी रहे हैं, यदि आप उन्हें भी अपनी बात समझाने में सफल रहते हैं और अपने तर्कांे तथा उचित विषय-सामग्री के साथ उन्हें सहमत कर पाने में कामयाब रहते हंै, तभी आप अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हंै, अन्यथा संघर्ष का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। दूसरा इसे जन-जन का मुद्दा बनाने के लिए सर्वप्रथम तो इस जन-जन को प्रभावित करने वाला मुद्दा बनाया जाना चाहिए। यदि मेरे जीवन पर इस बात का कोई दुष्प्रभाव या प्रभाव ही नहीं पड़ेगा कि राजस्थानी को मान्यता मिले या न मिले तो बताइए मैं क्यों कर आपकी इस मुहिम के बारे में जानना चाहूंगा? आप सभी दिग्गजों से अनुरोध है कि मेरी भावनाओं को अन्यथा न लेते हुए प्रतिक्रिया दें।
Vinod Saraswat
जिता मुंडा बित्ती बाता, हरेक री सोचण गत न्यारी ने केवणगत न्यारीl जिया आदमी रो मन चालण लाग ज्यावे बिया ही कलम चालण लाग ज्यावे तो केवणों ही काई? ग्यान रा घासा हरेक ही देवेl पण घासा-उकाळी तो आजकाले लोग लेवे इज कोनी, सगला ने एलोपेथिक री कुबाण ...पड्गीl जद ताई आ कुबाण नी छुटेला, राजस्थानी राष्ट्रवाद री सोच नी पकीजेलाl जद राजस्थानी राष्ट्रवाद री सोच पकगी तो समझ्लो के आपा गढ जीत्ल्योl भाई विकाश री बाता सू भी म्हने आ लागे के आपाने इण सोच ने पकावण री जरूत हैं। अबार आपा जिके मारग {मरणो-धरणो] चालण री सोच रेया हां. वो म्हारे मुजब ठीक हैं. आपाने इण री त्यारी करणी हैं. इण मे कोई भिचको नी घाले इण सारू सावचेती राखणी हैं. बस अबे इण पुराण ने अठेई खतम करो. दिल्ली कूच सारू लोगा ने तयार करो. जै राजस्थान, जै राजस्थानी.
Sachdeva Vikas Thanx vinod जी
Om Purohit Kagad
भाई विकास जी, अक्सर मैँ तल्ख भाषा का उपयोग नहीँ करता ,यदि इस परिचर्चा के दौरान कुछ अभद्रता कर दी है तो आप से क्षमा चाहता हूं । मेरा ऐसा मंतव्य कदापि नहीँ रहा कि आपको आहत करुं । फिर भी लगता है कि आहत हो कर आपको मेरे लिए "क्रियाक्लापों " जै...से विशेषण का प्रयोग करना पड़ा । इस स्थिति के उत्पन्न होने का कारण स्वयं को मानते हुए क्षमा चाहता हूं ।
Vinod Saraswat
Satyanarayan Soni
HanvantSingh Gundecha
Satyanarayan Soni विकास जी इस चर्चा को विस्तार देने के लिए अपनी मित्र-सूची में से कुछ और बुद्धिजीवी साथियों को टेग करें... सुनने वाले अधिक हों तो वक्ता का जोश बढ़ जाता है....
Om Purohit Kagad
Satyanarayan Soni http://www.facebook.com/note.php?note_id=10150097620469363
Satyanarayan Soni दो लेखों के लिंक दे रहा हूँ.....इन्हें आप सब और सचदेवा जी, खासतौर से आप जरूर पढ़ें इन्हें......
http://www.facebook.com/note.php?note_id=15511942116९९७७
Satyanarayan Soni http://www.facebook.com/note.php?note_id=150082471673672
Satyanarayan Soni सचदेवा जी, सब लोग भाषाविद नहीं होते....इस मसले को आप जैसे पत्रकार ही अब तक ढंग से नहीं समझ पाए तो आम आदमी से उम्मीद क्यों.....? फिर भी मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ...कि अब यह जन आन्दोलन बन चुका है...आन्दोलन निरंतर विकासमान है...
HanvantSingh Gundecha दाता : इण देस मे लोकतंत्र कोनीं। लोकतंत्र में लोगां री चालै॥ अठै तो मुट्ठी भर लोग बाकी सगळा माथै राज करै
Satyanarayan Soni जहाँ तक हमारे साथियों के आक्रामक रुख कि बात है तो इसकी वजह है....सहने की भी एक हद होती है..
गिरधारीसिंह पड़िहार ने लिखा है...
रण माड़ो करम जगत जाणे,
पण हद रै नाके झालीजे,
डांगर नीं घिरे दकाल्यां जद,
लाठ्याँ ही खेत रूखाळीजे॥
मेरी उग्रता के पीछे कारण मात्र इतना था कि आप राजस्थानी भाषा की मान्यता की दरकार एवम आंदोलन की व्यापकता से अनभिज्ञ हैँ । साथ ही मेरे उस आत्म सम्मान को भी चोट लगी जिसके तहत मैँ और मेरे करोड़ोँ हमभाषी राजस्थानी को विश्वस्तरीय भाषाविज्ञानियोँ के मतानुसार विश्व की प्रमुख सात समृद्ध भाषाओँ मेँ से एक मानते हैँ परन्तु आपने उसे भामेरी उग्रता के पीछे कारण मात्र इतना था कि आप राजस्थानी भाषा की मान्यता की दरकार एवम आंदोलन की व्यापकषा तक मानने से इन्कार कर दिया । यह तो केवल आपका ही मत था ना ? जबकि हमारे पास ग्रियर्सन,डा।सुनीति कुमार चटर्जी, डा.एल.पी.टेसीटोरी, महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरु,डा.नामवर सिँह, रविन्द्रनाथ टैगौर, हरिभाऊ उपाध्याय,त्रिलोचन शास्त्री,नरोत्तमदास स्वामी, जयनारायण व्यास, मोहन लाल सुखाड़िया, भैँरोँ सिँह शेखावत, अशोक गहलोत, डा. बी.ड़ी.कल्ला, डा.बलराम जाखड़ के द्वारा व्यक्त सतर्क दस्तावेजी आधार थे । संसद मेँ राजस्थानी भाषा को आठवीँ अनुसूची मेँ शामिल करने की मांग को लेकर 40 साल से हो रही सतर्क बहस, संसद मे इस हेतु आए सरकारी व गैरसरकारी बिल, दिनाजपुर अधिवेषन, बोट कल्ब व विधान सभा पर धरना व विधान सभा द्वारा राजस्थानी को आठवीँ अनुसूची मेँ लेने का सर्वसम्मत संकल्प पारित प्रस्ताव आदि आदि अनेक आधार थे जिनसे शायद आप अनभिज्ञ थे । राजस्थान लोक सेवा आयोग, माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नैशनल बुक ट्रस्ट आफ इंडिया, दूरदर्शन , आकाशवाणी, विश्वविद्यालय व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग राजस्थानी को संपूर्ण भाषा मान कर व्यवहार मेँ ले रहे हैँ , मुझे लगा आप इस से भी अनभिज्ञ हैँ । इस कारण संवाद तल्ख हो गया । आशा है आप अन्यथा नहीँ लेँगे तथा राजस्थानी भाषा की मान्यता की मांग हेतु हमारे आंदोलन का पुरजोर समर्थन करेँगे । आप की कही लिखी बात दूर तक जाती है जिसके लाभ के हकदार हम भी हैँ ।
Vinod Saraswat
विकाशजी, आपने लिखा कि मेरे लहजे ने आपको हेरान कर दिया. लेकिन इससे पहले आपने जो लिखा, वो कहा तक जायज था? आपने राजस्थानी कि विनम्र शैली क़ी बात क़ी, लेकिन आप भी विनम्र शैली में बात करते तो सायद मेरे भी सब्र का बाँध नहीं टूटता. आप तो पूरी तरह ...एक जज बन गए और प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये। कोई मुझे कितना ही कुछ कहे, यहाँ तक मार-पीट भी करले वो मैं बर्दास्त कर सकता हूँ. लेकिन मेरी मात्र भाषा के खिलाफ सुनना मुझे कभी भी गंवारा नहीं होगा. हो सकता है हम लोगो में कमी हो सकती है. लेकिन हमारी मायड भाषा राजस्थानी में कोई कमी नहीं हो सकती. आन्दोलन चलाने और विचार धारा के मामले में मेरे अपणे साथियो से मतभेद हो सकते हूँ. लेकिन उनके साथ मनभेद नहीं है, यह बात भी आदरणीय ओमजी और सत्य नारायण जी, रतन सिंघ जी शेखावत, जितेंदर जी सोनी, बनवारी जी सहारन, अनिल जी जांदू. अच्छी तरह जानते है. शुरू में आपका रवैया नकारात्मक था. अब आपने सकारात्मक पहल क़ी है तो यकीन मानिए आपकी यह शिकायत भी दूर हो जायेगी. आप एक व्यक्ति के साथ अभद्रता से पेश आते है तो चल जाता है, लेकिन जब आप किसी भाषा संस्कृति को चुनोती देते है. तो करोडो लोगो के कलेजे छलनी हो जाते है. तद लड़ता री मावा दो हु ज्यावे. जै राजस्थान, जै राजस्थानी.
Satyanarayan Soni
विकास जी, ''मैंने आपको इस परिचर्चा के लिए आमंत्रित नहीं किया, यहां तक कि आप मेरी मित्र सूची में भी नहीं हैं.. तो आप खुद विचार कीजिए कि यहां मेजबान कौन है और मेहमान कौन है..?'' फ़िलहाल मैं आपके इन शब्दों के सम्बन्ध में ही निवेदन करूंगा कि आप ...अपनी फोटो को संभालिये कि आपने इसे किन-किन को टेग किया है...इनमें विनोद सारस्वत का नाम भी है॥ एक निवेदन यह भी कि चर्चा का आगाज़ करने वाला ही हमेशा मेजबान होता है..और यह एक सार्वजनिक मंच है..इस चर्चा में कोई भी भाग ले सकता है... आपने तो बहुत कम लोगों को टेग करके इसे बेहद ही सीमित बना दिया...जबकि कम से 50 लोगों को टेग करते...मैंने फोन पर यह निवेदन भी किया था। और कृपया ऐसा कहकर यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाने वालों का अपमान मत कीजिये....
HanvantSingh Gundecha
विनोदजी, राजस्थानी राष्ट्रवाद री सोच राजस्थान रै चहूंमुखी विकास वास्तै जरुरी छै. जद तांई राजस्थानीयां में खुद रै वजुद, अस्मिता रौ सवाल नीं जागै औ काम संभव कोनीं.
@ sachdeva Vikas : साहेब मै सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि भासा बोलीयों से बनती है.... आप राजस्थान आकर रहने लगे। किसी क्षेत्र विशेष मे रहते हुये उस अंचल कि बोली से परिचीत हो गये और जब राजसथान के दूसरे अंचलो कि तरफ जाते हुये आपको उन्हे समझने मे दिक्कत हो रही है तब आपने ये अवधारणा बना ली. राजसथानी को स्कुलों मे नहीं पढाया जाता और इस कारण इसकी एकरुपता जो साहित्यक रुप से 60 साल पहले थी वो बिखरती जा रही है. हम चाहते है राजस्थान कि एकता और अखंडता फिर से मजबुत हो. स्कुलों मे जब ये पढायी जाने लगेगी तब ही ये संभव हो सकेगा.
Satyanarayan Soni विकास जी इस चर्चा को विस्तार देने के लिए अपनी मित्र-सूची में से कुछ और बुद्धिजीवी साथियों को टेग करें... सुनने वाले अधिक हों तो वक्ता का जोश बढ़ जाता है....
Satyanarayan Soni vikas ji, ''यह निश्चित रूप से एक गलत परम्परा कि शुरुआत होगी, जिसे किसी भी सूरत में स्वीकार किया जाना उचित नही है''॥ aap apne is vktvya ko thoda sa khulkar smjhayen ki kaunsi glt parmpra ki shuruaat ho jayegi...aur kya bhashaon ko manyta pradan krna glt parmpra hai....?
Om Purohit Kagad
राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता की मांग के आंदोलन को जितना नजरंदाज किया गया है उतना शायद आजादी के बाद से अब तक किसी भी आंदोलन को नहीँ किया गया । ग्राम पंचायत के वार्डपंच से ले कर संसद सदस्योँ तक ने मांग की । अनेक बार विधानसभा, राज्यसभा ...और लोकसभा मेँ बहस हुई । विधान सभा ने लाचारी दिखाई मगर सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया । केन्द्र सरकार ने कई बार संसद मेँ कहा कि सरकार राजस्थानी को आठवी अनुसूची मेँ लेने की मंशा रखती है । दो बार सरकार इसे आठवीँ अनुसूची मेँ लेने हेतु संविधान संशोधन विधेयक लाई भी मगर बिल पास नहीँ करवा कर वापिस ले लिए । डा.करणी सिँह , महाराजा गज सिँह व गुमानमल लोढ निजि विधेयक लाए मगर सरकार के आश्वासन के बाद वापिस ले लिए । आज भी सांसद अर्जुन मेघवाल,देवजी भाई पटेल, ज्योति मिर्धा, डा. गिरीजा व्यास सहित 25 के 25 सांसद मांग कर रहे हैँ मगर "हिन्दी खत्म हो जाएगी " का भय दिखाने वाले उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश ,बिहार आदि राज्योँ के अधिसंख्य सांसदो के दबाव मेँ विधेयक नहीँ लाया जा रहा । [ आप तो जानते हैँ कि हिन्दी का कोई आदिकाल नहीँ है । राजस्थानी साहित्य ही हिन्दी का आदिकाल है ] वरना क्या कारण है कि देश के सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले राज्य की भाषा को मान्यता नहीँ दी जा रही जब कि बिना राज्योँ वाली विदेशी भाषाओँ नेपाली, सिंधी व उर्दू तक को मान्यता दे दी गई । हम किसी भी भाषा की मान्यता का विरोध नहीँ करते मगर हमेँ भी तो हमारी भाषा चाहिए । भाई विकास जी, इस सब के चलते हर राजस्थानी लाचार हो गया । वह मान बैठा है कि सरकार ने हमारी 63 साल से नहीँ सुनी तो अब क्या सुनेगी । अब हम भाषा प्रेमियोँ का दायित्व बनता है कि हम मांग को जिन्दा रखेँ तथा अपनी मातृभाषा का कर्ज चुकाएं व लोगोँ मेँ विश्वास जगाएं कि अब तानाशाही नहीँ लोकतंत्र है और एक न एक दिन सरकार को हमारी मांग माननी पड़ेगी । विकास जी ,आप भी आश्वस्त रहेँ कि इस बार आर पार के लिए संघर्ष होगा । हम दिल्ली आमरण अनशन के लिए जाएंगे और अपनी जान देकर करोड़ोँ राजस्थानियोँ की गिरवी पड़ी जुबान लाएंगे । बस आप मित्रोँ का सहयोग चाहिए ।
कुछ अन्यथा लिख दिया है तो क्षमा !
आपणो राजस्थान
आपणी राजस्थानी
कुछ अन्यथा लिख दिया है तो क्षमा !
आपणो राजस्थान
आपणी राजस्थानी
Satyanarayan Soni इस पुष्प में राजस्थानी रूपी पंखुड़ी भी लगे... हिंदी के पैरोकार समझें...कि ऐसा होने से हिंदी और ज्यादा व्यापक, और ज्यादा महकदार और और ज्यादा आकर्षक हो जाएगी....
लिंक देखिये.......सचदेवा जी यह फोटो आप देखें....
http://www.facebook.com/media/set/fbx/?set=a.141659672521720.18408.100000330644312#!/photo.php?fbid=179130295441324&set=a.141659672521720.18408.100000330644312&type=1&theaterलिंक देखिये.......सचदेवा जी यह फोटो आप देखें....
Satyanarayan Soni http://www.facebook.com/note.php?note_id=10150097620469363
Satyanarayan Soni दो लेखों के लिंक दे रहा हूँ.....इन्हें आप सब और सचदेवा जी, खासतौर से आप जरूर पढ़ें इन्हें......
http://www.facebook.com/note.php?note_id=15511942116९९७७
Satyanarayan Soni http://www.facebook.com/note.php?note_id=150082471673672
Satyanarayan Soni सचदेवा जी, मैंने तो नहीं लिखा कि आप भाग गए......? एक सामान्य-सी बात भर कही थी....यह--- ''चर्चा का सूत्रपात करके जब सूत्रधार ही गायब हो जाता है तो मज़ा नहीं आता......पोस्ट लगे चार घंटे बाद तक इन्तजार करके अब सो रहा हूँ.....सचदेवा जी...!!! गुड नाईट....सब्बा खैर॥!!!!''
Satyanarayan Soni सचदेवा जी, अपने लिखे को पढ़ें. कागद जी हमारे आदरणीय हैं...अपनी विद्वता और अनूठी साहित्य सेवाओं के लिए देशभर में सम्मान्य हैं.. उनके लिए ''क्रियाकलाप'' जैसे हल्के शब्द का प्रयोग कर आपने हमारी भावनाओं को आहत किया है...
aapke shabd..... ''कागद जी, प्रणाम। संभवत: यह मेरी आपसे पहली मुलाकात है। इससे पूर्व केवल आपका नाम और आपके क्रियाकलापों के बारे में सुना ही था।''
aapke shabd..... ''कागद जी, प्रणाम। संभवत: यह मेरी आपसे पहली मुलाकात है। इससे पूर्व केवल आपका नाम और आपके क्रियाकलापों के बारे में सुना ही था।''
Satyanarayan Soni सचदेवा जी, सब लोग भाषाविद नहीं होते....इस मसले को आप जैसे पत्रकार ही अब तक ढंग से नहीं समझ पाए तो आम आदमी से उम्मीद क्यों.....? फिर भी मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ...कि अब यह जन आन्दोलन बन चुका है...आन्दोलन निरंतर विकासमान है...
HanvantSingh Gundecha दाता : इण देस मे लोकतंत्र कोनीं। लोकतंत्र में लोगां री चालै॥ अठै तो मुट्ठी भर लोग बाकी सगळा माथै राज करै
Satyanarayan Soni जहाँ तक हमारे साथियों के आक्रामक रुख कि बात है तो इसकी वजह है....सहने की भी एक हद होती है..
गिरधारीसिंह पड़िहार ने लिखा है...
रण माड़ो करम जगत जाणे,
पण हद रै नाके झालीजे,
डांगर नीं घिरे दकाल्यां जद,
लाठ्याँ ही खेत रूखाळीजे॥
Om Purohit Kagad मै क्रिया तो अवश्य करता हूं सोनी जी क्योंकि मैं जीव हूं लेकिन क्लाप तो नहीं ही करता ! बाकी विकास जी जैसा सोचें ! विकास जी को भी सोचने का अधिकार है---उन्होंने मेरा कोई क्लाप देखा होगा !
Sachdeva Vikas क्रियाकलाप से मेरा आशय आप द्वारा इस अभियान को लेकर किये जा रहे कार्यो से था, यदि इस शब्द के हल्केपन और दूसरे संदर्भो ने आपको आहत किया है तो मैं भूल स्वीकार करते हुए क्षमा प्रार्थी हूँ॥!
Sachdeva Vikas डॉ. सोनी जी, आपने भी मेरी बात को अन्यथा ले लिया, मेरा उद्देश्य आपको जवाब देना या कोई टिप्पणी करना न होकर अपना रुख साफ़ करना था...
मेरे ख्याल से इस सारे वाद-प्रतिवाद से कही ना कही सभी को लाभ मिला है और अपने-अपने ढंग से सभी इस परिचर्चा से ' सार-सार के ले गाही, थोथ्हा देई उडाये' को ध्यान में रखकर भविष्य की नीतिया तय करने का प्रयास करेंगे
मेरे ख्याल से इस सारे वाद-प्रतिवाद से कही ना कही सभी को लाभ मिला है और अपने-अपने ढंग से सभी इस परिचर्चा से ' सार-सार के ले गाही, थोथ्हा देई उडाये' को ध्यान में रखकर भविष्य की नीतिया तय करने का प्रयास करेंगे
इस परिचर्चा को सार्थक मानने के लिए आपका आभार सोनी जी.. यह एक सुखद अनुभव रहा कि आप और कागद जी जैसे महानुभावों से तर्क-वितर्क करने का मौका मिलने के साथ ही मुझे बहुत कुछ जानने-समझने को मिला।
ReplyDeleteविकास सचदेवा
07597047218
राजस्थान और राजस्थानी भाषा के विकास के प्रति आपका सहयोग महत्वपूर्ण है , राजस्थानी भाषा को अन्य भाषाओँ की तरह शेक्षणिक एवं राजकीय कार्यों में शामिल ना करने के विरोध में जयपुर शहर के स्टेचू सर्किल पर काली पट्टी बांध कर कर विरोध प्रदर्शन में सभी साथी आमंत्रित हैं ..... ......................जय जय
ReplyDeleteआपारी मायड भाषा राजस्थानी ने जल्द सूं जल्द संविधान री आठंवी अनुसूची माइने शामिल कारणों ही चाहिजे, क्युकी आ सगळा राजस्थानी जनमानस रे स्वाभिमान सु जुडीयोड़ो विषय हे. राजस्थानी एक पूर्ण विकसित भाषा हे अर विशाल जनमानस द्वारा बोली अर समझी जावे हे. राजस्थानी भाषा ने मान्यता हरेक राजस्थानी रो हक हे.
ReplyDelete