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जनपद री बोल्यां है मिणियां,
माळा राजस्थानी।
-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी
माळा राजस्थानी।
-सत्यनारायण सोनी, प्राध्यापक-हिन्दी
मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों ने अपने बयानों में राजस्थानी को बचाना जरूरी माना है और दबी जुबान में कुछ शंकाएं भी प्रकट की हैं, जो कि पूर्णतया बेमानी और आधारहीन हैं। यह उनकी भाषाई समझ के दिवालिएपन का द्योतक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी को चिंता है कि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि राजस्थानी भाषा किसे कहा जाए, क्योंकि हर क्षेत्र में अलग-अलग बोलियां हैं। हम राजस्व मंत्री महोदय को याद दिलवाना चाहते हैं कि बोलियां किसी भी भाषा की समृद्धता की सूचक होती हैं। दुनिया के समस्त भाषाविद यह मानते हैं कि जिस भाषा में जितनी अधिक बोलियां होंगी वह उतनी ही समृद्ध होगी। बिना अंगों के शरीर की तरह से होती है बिन बोलियों के भाषा। भाषा अंगी और बोलियां अंग होती हैं। हिन्दी की अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, ब्रज, बांगरू, खड़ी, कन्नौजी, मैथिली आदि बोलियां ही तो हैं। हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में अवधी के तुलसी, ब्रज के रसखान और सूर, मैथिली के विद्यापति, सधुक्कड़ी के कबीर आदि गर्व के साथ पढ़ाए जाते हैं। भाषाई विभिन्नता के बावजूद भी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी के आधुनिक गद्य लेखकों के रूप में प्रसिद्ध हैं। पंजाबी की पोवाधि, भटियाणी, रेचना, सेरायकी, मांझी, दोआबी, अमृतसरी, जलंधरी आदि कितनी ही बोलियां हैं और वह विश्वभर में सम्मानित है। इसी भांति राजस्थानी की मेवाती, मेवाड़ी, हाड़ोती, ढूंढाड़ी, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियों के बावजूद लेखन के स्तर पर एक ही भाषाई रूप प्रचलित है। अंचल विशेष के प्रभाव से कहीं-कहीं विविधता नजर आती है तो वह कमजोरी नहीं भाषा की, खासियत है। साहित्य के लिए यही अनिवार्य शर्त होती है कि उसमें हर स्तर पर लेखक का परिवेश बोलना चाहिए। हम माननीय हेमारामजी से निवेदन करना चाहते हैं कि राजस्थानी भाषा में प्रकाशित होने वाली दर्जन-भर पत्र-पत्रिकाएं अपने घर पर मंगवाएं। ग्यारहवीं से लेकर एम.ए. तक की पढ़ाई में शामिल राजस्थानी साहित्य की पाठ्यपुस्तकें पढ़कर देखें। बाजार में उपलब्ध राजस्थानी लोकगीतों के केसेट्स व ऑडियों-वीडियो सीडी घर पर लाकर कभी फुरसत में सुना करें। और फिर अपना वही सवाल दोहराएं। राजस्थानी के अनुभवी और विद्वान लेखकों ने पाठ्यपुस्तकें ऐसी तैयार की हैं कि उनमें हर विद्यार्थी को अपनेपन की महक आती है। सिंहासन पर बैठकर आदमी अपनी जमीन से कट जाता है और किसी विषय में अल्पज्ञानी होते हुए भी बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगता है।
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री भरतसिंह की कमोबेश यही चिंता है जिसका जवाब ऊपर की पंक्तियों में आ चुका है, मगर उनके इस बयान से हमें घोर आपत्ति है कि हिन्दी और अंग्रेजी ऐसी भाषाएं हैं जिसे हर क्षेत्र का व्यक्ति सहजता से समझ सकता है। माननीय भरतसिंह जी, आप अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन्हीं भाषाओं में वोट क्यों नहीं मांगते? क्योंकि आपकी वोटर-जनता तो इन्हें सहजता से समझती है। घर के शादी-समारोहों, व्रत-त्योहारों और उत्सवों पर भी इन्हीं भाषाओं के गीत गाए जाते होंगे आपके यहां? हाड़ोती के लोग अगर हिन्दी और अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं तो घर-परिवार में नहीं। जहां जरूरत हो इनकी वहां किया भी जाना चाहिए। राजस्थानी का सम्मान करने का मतलब किसी अन्य भाषा की अवहेलना नहीं होता, सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना चाहिए। हाड़ोती अंचल के बहुत-से आयोजनों में जाने का मौका मिला है। ठेठ हाड़ोती में बातचीत करते हुए देखता रहा हूं और मंचों से बोलते हुए भी सुना है मैंने लोगों को। बहुत-से लेखक मित्रों यथा- अतुल कनक, प्रहलाद सिंह राठौड़, डॉ. शांति भारद्वाज राकेश, गिरधारी लाल मालव आदि से फोन पर बातचीत भी ठेठ राजस्थानी भाषा और बाकायदा उनके हाड़ोती लहजे में होती है। माननीय भरतसिंहजी, हम जानते हैं और इसलिए आपकी प्रशंसा सुन चुके हैं कि आप जनसभाओं को ठेठ हाड़ोती में सम्बोधित करते हैं, फिर आज आपने यह बयान दिया है तो हमें बड़ा अचरज हो रहा है।
पूर्व शिक्षामंत्री कालीचरण सराफ को चिंता है कि राजस्थानी लागू होने से वैश्विकरण के दौर में हम पीछे रह जाएंगे। तो सवाल यह उठता है कि भारत के लगभग हर प्रांत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती है और राजस्थान में नहीं। बताइए वे प्रान्त कितने'क पीछे रह गए और राजस्थान के बच्चों से उनकी मातृभाषा छीनकर आपने कितना'क आगे निकाल दिया? गांधीजी ने अपने अनुभवों के आधार पर जो लेख लिखे उनमें स्पष्ट किया कि जितनी अंग्रेजी और फारसी बालक अन्य माध्यम से चार साल में सीखता है वही अपनी मातृभाषा के माध्यम से एक बरस में सीख सकता है। वैश्विकरण के दौर में आप बच्चों को अगर अंग्रेजी सिखाना चाहते हैं तो वह मातृभाषा के माध्यम से ही सिखाइए और उसकी सीखने की गति तो देखिए। दुनियाभर के शिक्षाविद कोई अंधेरे में तीर नहीं मार रहे। अपने अनुभवों का निचोड़ पेश किया है उन्होंने। गांधीजी की बात पर गौर फरमाएं- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
और अंत में कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आप सब के लिए-
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री भरतसिंह की कमोबेश यही चिंता है जिसका जवाब ऊपर की पंक्तियों में आ चुका है, मगर उनके इस बयान से हमें घोर आपत्ति है कि हिन्दी और अंग्रेजी ऐसी भाषाएं हैं जिसे हर क्षेत्र का व्यक्ति सहजता से समझ सकता है। माननीय भरतसिंह जी, आप अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन्हीं भाषाओं में वोट क्यों नहीं मांगते? क्योंकि आपकी वोटर-जनता तो इन्हें सहजता से समझती है। घर के शादी-समारोहों, व्रत-त्योहारों और उत्सवों पर भी इन्हीं भाषाओं के गीत गाए जाते होंगे आपके यहां? हाड़ोती के लोग अगर हिन्दी और अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं तो घर-परिवार में नहीं। जहां जरूरत हो इनकी वहां किया भी जाना चाहिए। राजस्थानी का सम्मान करने का मतलब किसी अन्य भाषा की अवहेलना नहीं होता, सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना चाहिए। हाड़ोती अंचल के बहुत-से आयोजनों में जाने का मौका मिला है। ठेठ हाड़ोती में बातचीत करते हुए देखता रहा हूं और मंचों से बोलते हुए भी सुना है मैंने लोगों को। बहुत-से लेखक मित्रों यथा- अतुल कनक, प्रहलाद सिंह राठौड़, डॉ. शांति भारद्वाज राकेश, गिरधारी लाल मालव आदि से फोन पर बातचीत भी ठेठ राजस्थानी भाषा और बाकायदा उनके हाड़ोती लहजे में होती है। माननीय भरतसिंहजी, हम जानते हैं और इसलिए आपकी प्रशंसा सुन चुके हैं कि आप जनसभाओं को ठेठ हाड़ोती में सम्बोधित करते हैं, फिर आज आपने यह बयान दिया है तो हमें बड़ा अचरज हो रहा है।
पूर्व शिक्षामंत्री कालीचरण सराफ को चिंता है कि राजस्थानी लागू होने से वैश्विकरण के दौर में हम पीछे रह जाएंगे। तो सवाल यह उठता है कि भारत के लगभग हर प्रांत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती है और राजस्थान में नहीं। बताइए वे प्रान्त कितने'क पीछे रह गए और राजस्थान के बच्चों से उनकी मातृभाषा छीनकर आपने कितना'क आगे निकाल दिया? गांधीजी ने अपने अनुभवों के आधार पर जो लेख लिखे उनमें स्पष्ट किया कि जितनी अंग्रेजी और फारसी बालक अन्य माध्यम से चार साल में सीखता है वही अपनी मातृभाषा के माध्यम से एक बरस में सीख सकता है। वैश्विकरण के दौर में आप बच्चों को अगर अंग्रेजी सिखाना चाहते हैं तो वह मातृभाषा के माध्यम से ही सिखाइए और उसकी सीखने की गति तो देखिए। दुनियाभर के शिक्षाविद कोई अंधेरे में तीर नहीं मार रहे। अपने अनुभवों का निचोड़ पेश किया है उन्होंने। गांधीजी की बात पर गौर फरमाएं- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
और अंत में कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आप सब के लिए-
मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी,
हाड़ोती, मरुवाणी।
सगळां स्यूं रळ बणी जकी बा
भाषा राजस्थानी।
रवै भरतपुर, अलवर अळघा
आ सोचो क्यां ताणी!
हिन्दी री मां, सखी बिरज री
भाषा राजस्थानी।
जनपद री बोल्यां है मिणियां,
माळा राजस्थानी।
हाड़ोती, मरुवाणी।
सगळां स्यूं रळ बणी जकी बा
भाषा राजस्थानी।
रवै भरतपुर, अलवर अळघा
आ सोचो क्यां ताणी!
हिन्दी री मां, सखी बिरज री
भाषा राजस्थानी।
जनपद री बोल्यां है मिणियां,
माळा राजस्थानी।
कानांबाती : 09602412124
म्हने राजस्थान रा इण मिजला राज्नेतावा रे माथे घणी रीस आवे. जिका वोट लेव्ती वगत तो राजस्थानी रा गुण गावे. अर कुर्सी मिलता ही ऐ गुणगाल नेता भाषा रे भावा ने भूल जावे. इण कालीचरण सराफ ने देखो के जिण वगत ओ राजस्थान रो सिक्षा मंत्री हो उन वगत ओ कोई जस नी ले सक्यो. १९९३ में जद राजस्थान री विधान सभा में राजस्थानी री मानता रो प्रस्ताव आयो उन वगत ओ खुद राजस्थानी री मानता री बात ने सिकारी अर इण रे पख में बोल्यो. आ कित्ती ओछी बात लागे के राजस्थान रे पेलीड़े सिक्षा मंत्री ने हाल ओ इज ज्ञान कोनी के इण देश री राष्ट्रभाषा किसी है? इण हरामखोर रे ज्ञान वास्ते बतादू के भारत रे सविंधान अबार री घडी २२ भाषावा ने रास्त्रभासावा रे सरूप मानता दे राखी है. दूजी बात हेमा राम चौदरी रे बयान पर केव्णी चावू के उन ने भाषा अर बोली में काई फर्क वेह इण रो ज्ञान कोनी. हिंदी रा ९३ रूप है अर राजस्थानी रा ७३ रूप है. अर बोली इण भाषा रा मिणिया है जिण भान्त मिणिया रे बिना माला नी बने तो बोली रे बिना भाषा नी बणे. जिण भाषा री जीतती बोलिया ने सरूप हुसी उन री सामर्थ भी घणी लूंठी हुसी. हरेक भाषा री आपरी न्यारी न्यारी बोलिया व्हे अर बोलिया सू इज भाषा बणे. बारे कोसा बोली बदले प्रकृति रो नेम आखे जगत में चाले. भाषा बा व्हे. जिण में साहित्य रो सिरजन व्हे. जदी भाषा रो ज्ञान नी है तो पाछा पोसाला में जावो अर आ सीख ने आवो के भाषा अर बोली में काई फर्क व्हे. देश रो संविधान पढो. पढनो नी आवे तो पढ्या लिख्या सू सीखो. पण एक बात सुनलो के जिण बात रो ज्ञान कोनी उन में टांग मति अडावो. थे थारी राजनीति री रोत्या सको, भाषा री पंचायती मति करो.
ReplyDeleteaap hachi bat ko ho sa
ReplyDeletemaka hame aapni bhasha ko dam gut ja asso veva ni devanga me aap ka ani nek kam me hate ha sa
rajasthankavitakosh.blogspot.com
kavyawani.blogspot.com
amritwani.com
shekhar kumawat
अकल सरीरां ऊपजै, देयां लागै डाम।
ReplyDeleteआ कहावत झूठी नीँ है।आं मिजळां नै लाज नीँ।आं री अकल ठिकाणोँ छोड गी।अब तो डाम ई देवणा पड़सी।विनोद सारस्वत जेड़ा लोगां नै कै'वो कै चीँपिया ताता अनै डोभा राता कर दिल्ली नेड़ी लेवो।अब आं मोट्यारां रै गेल बगां आपां।