Thursday, January 5, 2012

मातृभाषा के पीछे चले अंग्रेजी


English Medium 

-विश्वमोहन तिवारी
   शिक्षा के माध्यम के विषय में आम आदमी की क्या सोच है? शिक्षा का माध्यम वह हो जिसमें अच्छी और सम्पूर्ण शिक्षा मिले, जो जीवन में काम आए।
   अब अच्छी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों में मिलती है, तो हर अभिभावक उन्हीं स्कूलों में, उसी भाषा में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाना चाहेंगे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पुस्तकें हिन्दी में नहीं है, पढ़ाने वाले भी नहीं हैं, जबकि अंग्रेजी में ये दोनों चीजे उपलब्ध हैं। एक तरफ अंग्रेजी से मजबूर आम आदमी है तो दूसरी तरफ कुछ आदर्शवादी लोग हैं जो जीवन मूल्यों की दुहाई देते हुए मातृभाषा को अपनाने की बात करते हैं। उनकी आलोचना यह कहकर की जाती है कि मतलब जीवन मूल्य सीखने से है, चाहे जिस किसी भाषा में सीख लें। साथ ही उन पर आरोप लगाया जाता है कि वो ये नहीं देखते या देखना चाहते कि पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनकी सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें?
   लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि अंग्रेजी माध्यम से हमें पाश्चात्य जीवन मूल्य और सभ्यता ही मिलेगी। जो हमें तथाकथित सफलता तो देगी लेकिन सुख और शांति का हमारे जीवन से लोप हो जाएगा। पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है। भोगवादी सभ्यता में प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, परिवार का प्रत्येक सदस्य भी। इस तरह का परिवार और समाज भौतिक उन्नति तो करता है किन्तु विखंडित हो जाता है।
   अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा के अपने कुछ फायदे है और कुछ नुकसान। यही बात भारतीय भाषाओं पर भी लागू होती है। ऐसी स्थिति में हमें देखना चाहिए कि किसके नुकसान कम हैं और फायदे ज्यादा। साथ ही हमारी अपेक्षाओं की पूर्ति किस माध्यम से पूरी होंगी। शिक्षा का जो माध्यम हमारी सोच, हमारे समाज के आदर्श और हमारी जरूरतों के अनुरूप हो उसे ही अपनाना चाहिए।
   इस आधार पर विदेशी भाषा के मुकाबले अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करना अधिक लाभदायक और उचित है। शिक्षा का एक अहम् उद्देश्य है मानव में नैतिक मूल्य का बीजारोपण करना। चूंकि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाहन उस संस्कृति की भाषा  है। इसलिए जिस संस्कृति को हम बच्चों के लिए उचित मानते हैं उस संस्कृति को सम्पूर्णता से व्यक्त करने वाली भाषा ही शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति बच्चों में पनपेगी और भारतीय भाषाओं में दी गई शिक्षा से भारतीय संस्कृति बच्चों पर अपना असर डालेगी।
   पहले ही बताया जा चुका है कि पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय संस्कृति लाख गुना बेहतर है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति  सुख का भ्रम देती है और भारतीय संस्कृति सच्चा सुख देती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी श्रेष्ठ संस्कृति खो रहे हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के वाहक अपनी मातृभाषाओं को छोड़ कर भोगवादी भाषा अंग्रेजी अपना रहे हैं।
   एक बार गुजरात के तत्कालीन शिक्षामंत्री आनन्दी बेन ने कहा था, ”अंग्रेजी का ज्ञान विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता है। हमारे विद्यार्थी उच्चशिक्षा के लिये विदेश जाएं, यह आवश्यक है।” ऐसे विद्यार्थी दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं होंगे जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाते हों। फिर उन थोड़े से विद्यार्थियों के लिए 99 प्रतिशत विद्यार्थियों पर अंग्रेजी थोपना कहां तक उचित है। लेकिन अंग्रेजी के पक्ष में शिक्षा मंत्री के तर्क की तरह के अनेक अधपके तर्क दिये जाते हैं, और देश उन्हें स्वीकार भी कर रहा है।
   पहले कान्वेंट स्कूलों में मातृभाषाओं का तिरस्कार होता रहता था, अब तो पब्लिक स्कूलों में भी डंके की चोट पर मातृभाषाओं की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। यह कैसा भारतवर्ष है! गणित तथा विज्ञान को समझने के लिये मातृभाषा ही सर्वोत्तम माध्यम है, ऐसा प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रोफेसर कोठारी सहित अनेक विद्वानों ने बार-बार कहा है। लेकिन फिर भी अंग्रेजी ही अंग्रेजी नजर आती है हर जगह, कैसी विडंबना है यह।
   1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता के पश्चात की पीढ़ी ने अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन् विकास के लिये भी पश्चिम के अनुकरण को ही अनिवार्य मान लिया। महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़तापूर्वक कहते हैं, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’
   नेहरू ने गांधी के गहन गंभीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। नेहरू तथा अन्य अदूरदर्शी नेताओं द्वारा स्वीकृत अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवन मुल्यों को बढ़ाने का माध्यम बनी। उसने भोगवाद तथा अहंवाद को बढ़ावा दिया। मानसिक गुलामी पैदा की जिसका प्रभाव टेलीविजन  इत्यादि माध्यमों ने इतना तेज कर दिया कि अब वो विकराल रूप धारण करती जा रही है।
   यदि आप किसी भारतीय ब्राउन साहब से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है, तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार के युग में जी रहे थे। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया। हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया, हमारी भाषाएं इस मामले में नितान्त अशक्त थीं।
   अंग्रेजी का गुणगान करने वाले ऐसे लोग इस बात को नजरअंदाज कर जाते हैं कि अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ते हुए हमें सौ वर्षों से अधिक हो गए हैं लेकिन हमें कुल एक नोबेल पुरस्कार मिला है। वहीं साठ लाख की आबादी वाले देश इजराइल ने 1948 से अपनी शिक्षा का माध्यम यहूदी रखते हुए 11 नोबेल पुरस्कार जीत लिये हैं। गुलामी के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टाकहोम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामी की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टाकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं।
   वैश्वीकरण के अनेक परिणामों में एक है प्रवासियों का महत्वपूर्ण संख्या में विदेशों में अचानक निवास करने लगना। कनाडा के टोरन्टो शहर के किन्डरगार्टन में पढ़ रहे विद्यार्थियों में 58 प्रतिशत बच्चे ऐसे देशों से आए हैं जहां की आम भाषा अंग्रेजी नहीं है। इस देश के फासिस्ट प्रवासियों को या तो निकालना चाहते हैं या उन्हें मुख्यधारा से बाहर रखना चाहते हैं। और कुछ उदार समुदाय उन्हें मुख्यधारा में पूरी तरह समाहित करना चाहते हैं। उदारवादी नहीं चाहते कि प्रवासी विद्यार्थी अपनी भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करें। उन्हें कक्षाओं में अपनी भाषाओं में बात करने के लिये प्रोत्साहित नहीं किया जाता क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता है कि तब वे प्रवासी बच्चे मुख्यधारा से जुड़ने में कम सक्षम होंगे।
   कनाडा में आप्रवासियों को शिक्षा उनकी भाषा में दी जाए कि राजभाषा अंग्रेजी और फ्रेन्च में, इस मुद्दे पर काफी बहस चली है। कई शोध भी हुए हैं। विद्वान कमिन्स, बेकर तथा स्कुटनाबकंगस ने मिलकर इस विषय पर बहुत गहरा अनुसंधान कर कुछ निष्कर्ष निकाले जिनकी चर्चा करना जरूरी है। उनके निष्कर्ष कुछ इस प्रकार थे-
1. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के तहत बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा न देना मानवाधिकारों का हनन है।
2. द्विभाषी बच्चों की मातृभाषा उनके समग्र विकास तथा शैक्षिक विकास के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है।
3. जब बच्चे दोनों भाषाओं में विकास करते रहते हैं तब उन्हें भाषाओं तथा उनके उपयोग की गहरी समझ हो जाती है।
4. द्विभाषी बच्चों के विचार करने की पद्धति अधिक नमनीय हो सकती है।
5. जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं, वे दूसरी भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं। क्योंकि जो भी बच्चों ने अपने घर में अपनी मातृभाषा में सीखा है वह ज्ञान, वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सहज ही तैर जाते हैं। अर्थात मातृभाषा के उपयोग को  रोकना बच्चे के विकास में सहायक नहीं होता।
6. शिक्षण संस्थान में किसी भी बच्चे की मातृभाषा को ठुकराने से बच्चों को यह संदेश भी चला जाता है कि अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी संस्कृति भी संस्थान के बाहर छोड़कर आएं। तब बच्चे अपनी अस्मिता और अपने संस्कारों का कुछ हिस्सा भी बाहर छोड़ आते हैं।
   उपरोक्त अनुसंधान से एक महत्वपूर्ण निर्णय निश्चित रूप से निकलता है कि मातृभाषा में शिक्षा तथा उसका सम्मान अत्यंत आवश्यक है। ऐसा
नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखनी चाहिये, अवश्य सीखनी चाहिए। लेकिन उसे एक उपयोगी-विदेशी भाषा की तरह ही सीखना चाहिए।
   भारत में जो शिक्षा प्राथमिक स्तर में, और महानगरों में तो नर्सरी से, अंग्रेजी माध्यम में दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान
है। अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा की तरह सीखना तो पांचवीं कक्षा से प्रारंभ किया जा सकता है। नर्सरी या पहली कक्षा से ही अंग्रेजी शुरू करने
पर अंग्रेजी सीखने में अधिक कठिनाई होगी क्योंकि बच्चा मातृभाषा में सीखे ज्ञान, अवधारणाओं तथा कौशल को अन्य भाषा में ढालता है। अतएव
अंग्रेजी की शिक्षा दो चार कदम पीछे ही रहनी चाहिए। पूर्ण शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही रहनी चाहिए। कुछ विद्यार्थियों को शिक्षा अंग्रेजी माध्यम
में दी जा सकती है। ऐसी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से बारहवीं कक्षा के बाद ही प्रारंभ करनी चाहिए। क्योंकि मातृभाषा की पर्याप्त निर्मिति तथा
संस्कृति मस्तिष्क तथा हृदय में समुचित रूप से बैठने में 15 से 16 वर्ष लगते हैं।
   भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में
सशक्त होने के लिए उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार
है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते
हैं। जिस भाषा में जीवन गुजारा जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं और उसी भाषा में आविष्कार आदि हो सकते हैं। इसलिए नौकरी के
लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वालों से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, आखिर इजरायल जो कि हमारे देश का दसवां
हिस्सा भी नहीं है, विज्ञान में हमसे दस गुने नोबेल पुरस्कार ले जाता है उसका कारण यही है कि उसने अपने बच्चों को मातृभाषा में शिक्षित
किया।
   इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आपका, आपके बच्चों का और इस देश का विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा
मातृभाषा में ही देनी चाहिए।  ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मातृभाषा में पढे बच्चे पीछे रह जाते हैं। सुभाष चन्द्र बोस का उदाहरण हमारे सामने है।
सुभाष चंद्र बोस को उनके पिता ने अंग्रेजी माध्यम में भर्ती करवाया था। कुछ ही दिनों में सुभाष ने स्वयं ही अपना प्रवेश बंगला भाषा के
माध्यम वाली पाठशाला में करवा लिया था। बांग्ला भाषा में शिक्षित सुभाष ने न केवल आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की वरन् एक अनोखे
क्रान्तिकारी भी बने। इससे यह सिद्ध होता है कि मातृभाषा ही शिक्षा को श्रेष्ठ माध्यम है।

4 comments:

  1. सार्थक और सामायिक पोस्ट, आभार.
    पधारें मेरे ब्लॉग meri kavitayen पर भी, मुझे आपके स्नेहाशीष की प्रतीक्षा है.

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  2. Hindi was also an outside language for Rajasthan but
    nobody complain about that.
    If education should be in mother-tongue than in
    Rajasthan it should be in Rajasthani.
    Hindi has done more damage than English in Rajasthan in last 50 years.

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