Sunday, May 29, 2011

बिरखा-बींनणी

इण कविता में बिरखा बींनणी री तुलना बींदणी सूं करी छै। बींदणी री भांत बरखा लजाती, मदमाती, बिलमाती, सौ बळ खाती, प्रीत रा गीतड़ला उगेरती, नवी-नवी उमंगां नै सांप्रत करण री आस लियां, अनै हंसती-मुळकती नवी बींदणी हौळै-हौळै आगै बधती जा रैयी छै। सिंणगार रस रै सौरभ सूं सुरभित आ कविता भाव, भाषा, सबद योजना अर सरसता नै गुणां सूं परिपूर्ण छै। राजस्थान रै मरू प्रदेस मांय बरखा घणै नखरां अर उडीक रै पछै आवै। अठै रा लोग बरखा री बाट जोवता रैवै, पण बरखा री बादळियां, नवी बींदणी री भांत लजाती, इठलाती, मोद मनावती अनै भरमावती आगै निकळ ज्यावै। रेवतदान जी रै ‘चेत मांनखा’ काव्य संगै मांय इकताळीसवैं पानै पर संकलित आ कविता पेस है सा-

बिरखा-बींनणी

रेवतदान

लूम-झूम मदमाती, मन बिलमाती, सौ बळ खाती,
गीत प्रीत रा गाती, हंसती आवै बिरखा बींनणी।

चौमासै में चंवरी चढ़नै, सांवण पूगी सासरै
भरै भादवै ढळी जवांनी, आधी रैगी आसरै
मन रो भेद लुकाती, नैणां आंसूड़ा ढळकाती
रिमझिम आवै बिरखा बीनणी।

ठुमक-ठुमक पग धरती, नखरौ करती
हिवड़ौ हरती, बींद-पगलिया भरती
छम-छम आवै बिरखा बींनणी।
तीतर बरणी चूंदड़ी नै काजळिया री कोर
प्रेम डोर में बंधती आवै रूपाळी गिणगोर
झूठी प्रीत जताती, झीणै घूंघट में सरमाती
ठगती आवै बिरखा बींनणी।

आ परदेसण पांवणी जी, पुळ देखै नीं बेळा
आलीजा रै आंगणै में करै मनां रा मेळा
झिरमिर गीत सुणाती, भोळै मनड़ै नै भरमाती
छळती आवै बिरखा बींनणी।

लूम-झूम मदमाती, मन बिलमाती, सौ बळ खाती,
गीत प्रीत रा गाती, हंसती आवै बिरखा बींनणी।

Thursday, May 26, 2011

बिरखा थारा कितरा नांम


बिरखा थारा कितरा नांम

भंवरसिंह सामौर

राजस्थानी री एक जूनी कैबत है-
छळ बळ रा मारग किता, तो हाथां किरतार।
मारण मारग मोकळा, मेह बिना मत मार।।
राजस्थान वास्तै बिरखा जीवण रो आधार हुवै। इण वास्तै बिरखा रो सुवागत अठै रा लोग घर मांय नुवीं बीनणी-लिछमी मांन`र करै। राजस्थान मांय बिरखा अर पांवणा कदे-कदे ही आवै। पण आवै तो सुवागत मांय आखी जीया जूंण पलक पांवड़ा बिछावण में कसर कोनी राखै। अठै रा लोगां नैं बिरखा ग्यांन री जांणकारी भी कमती कोनी। सो कोस री खिंवण अर तीस कोस री गाज रै मिस प्रकास अर धुनि री चाल रो फरक अठै रो गुवाळियो ही जांणै।
बिरखा इण मरूथळ मांय सबसूं कम बरसै पण इण री आव भगत सारू पूरो चौमासो है। इण बिरखा रै वाहण बादळां रा सगळां हूं घणां नांम अठै ही लाधै। बादळां रा इतरा नांम कै बां नांवां री गिणती आगै बादळ खुद थोड़ा हो ज्यावै। बिरखा नैं धारण करणियां बादळां रा इतरा नांम कै खुद बादळ वां आगै कम पड़ ज्यावै। बादळ नैं राजस्थानी मांय जळधर, जळहर, जळवाह, जळधरण, जळद, जीभूत, घटा, घर, सारंग, बोम, बोमचर, मेघ, मेघाडंबर, मुदिर, महिमंडण, धरमंडण, भरणनद, पाथोद, पीथळ, पिरथीराज, पिरथीपाळ, पावस, डाबर, डंबर, दळबादळ, घण, घणमंड, जळजाळ, काळी, कांठळ, कळायण, कारायण, कंद, हब्र, मैंमट, मेहाजळ, मेघांण, महाघंण, रामइयो, सेहर, बसु, बैकुंठवासी, महीरंजण, अंब, इलम, नभराट, ध्रवण, पिंगळ, धाराधर, जगजीवण, जळबाहण, अभ्र, बरसण, नीरद, पाळग, बळाहक, जळवह, जळमंडळ, घणांघण, तड़ितवांन, तोईद, परजन, आकासी, जळमुक, जळमंड, महिपाळ, तरत्र, निरझर, भरणनिवांण, तनयतू, गयणी, महत, किलांण, रौरगंजण इत्याद घणां ही नाम मिलै। आं नांवां मांय गांव गेर रो नांकुछ गुवाळियो अर हाळी बाळदी दस बीस ओर नाम जोड़ देवै तो अचंभै री बात कोनी।
बिरखा रा बादळां रै आकार प्रकार, चाल-ढाल रै मुजब न्यारा नांव इण भांत प्रगट हुवै। बिरखा रै बडै बादळां रो नाम सिखर तो छोटा-छोटा ल्हैरदार बादळिया छीतरी कुहावै। पसरियोड़ा बादळां रै रेवड़ मांय अळगो रह्यो थको छोटोसोक बादळो ही अठै गिणती सूं कोनी छूट्यो। उणनैं चूंखो-चूंखलो कैय बताळाईजै। पवन रै रथ में बैठ बरसण सारू दूर सूं आंवता बादळ कळायण बाजै। काळै बादळां री घटा रै आगै धोळै बादळां री धजा सी फरूकती दीखै बो कोरण अथवा कागोलड़ कहीजै। धोळी धजा बिहूंणी काळी घटा आंवती दीसै बा कांठळ बाजै। इतरा न्यारा न्यारा नांवां रा धणी बादळ आभै में हुवै तो च्यार दिसावां छोटी पड़ ज्यावै। इण वास्तै आठ, दस अर सोळा दिसावां बण ज्यावै।
ऊंचाई नीचाई अर बीचाळै उडबाळै बादळां रा ही न्यारा न्यारा नांव लाधै। पतळा अर ऊंचा बादळ कस अर कसवाड़ बाजै। नैरत सूं ईसांण धकै थोड़ा ढुकणिये बैंवता बादळ ऊंब कुहावै। घटा री छावणी घटाटोप बाजै। थोड़ी-थोड़ी बरसती घटावां सहाड़ बाजै। आथूंण सूं पवन रै बेग दोड़ती घटावां लोर बाजै अर बै लोर गळण लागै जणां लोरां झाड़ मंडै। बरस्यां पछै सुस्ताता बादळ रींछी कुहावै। काम सूं आराम करता बादळां री इतरी समझ राखणियैं समाज नै उणसूं हेत राखणियों समाज ही मेहा तो बरसत भला कैय`र बिरखा नै मंगळकारी ही मांनै। आऊगाळ बिरखा आवण री बधाई रो संकेत देवै। अठै बिरखा भलां ही कम हुवो पण उण री आव भगत सारू पूरो चौमासो है।
बिरखा रै बादळां रा ही जद इतरा नांव है तो उणरी चांदी बरणी छांटां री तो कितरा ही रूपां अर कितरा ही नांवां सूं बतळावण लाधसी। मेह री झड़ी ज्यूंही नांवां री झड़ी लाधै। छांट रो पहलो ही नाम हरि है। फेरूंस मेघपुहप, बिरखा, बरखा, घणसार, मेवलियो, बूलौ, सीकर, फुंहार, छिड़को, छांटो, छांटा-छिड़को, छछोहो, टपको, टीपो, टपूकलो, झिरमिर, पुणंग, जीखौ, झिरमिराट अर उण सूं आगै झड़ी, रीठ अर भोट बणै। झड़ी लगोलग बरस्यां जावै तो झड़ मंडण, बरखावळ, हलूर बाजै। न्यारै महिनां री बिरखा रा ही न्यारा-न्यारा नांम हुवै। सावण री बिरखा लोर, भादवै री बिरखा झड़ी, आसोज री बिरखा मोती, कातिक री बिरखा कटक, मिंगसर री बिरखा फांसरड़ो, पोह री बिरखा पावठ, माघ री बिरखा मावठ, फागण री बिरखा फटकार, चैत री बिरखा चड़पड़ाट, बैसाख री बिरखा हळोतियो, जेठ री बिरखा झपटो अर असाढ री बिरखा सरवांत बाजै।
मेहाझड़ में छांटां री चाल अर अवधी दोन्यूं बधै। झपटै में चाल बधै अर अवधी कम हुवै। त्राट, त्रम झड़, त्राटकणों, धरहरणो भी छांटां रा न्यारा-न्यारा रूप हुवै। मूसळधारा छांटा छोळ, आणंद बाजै। तेज बिरखा री आवाज सोकड़ हुवै। बादळ सूं धरती नैं एकमेक करबाळी छांटां धारोळा बाजै। धारोळां री बोछाड़ बाछड़ बाजै। धारोळां सागै उठबाळी आवाज घमक-घोख बाजै। घमक सागै बैंवती प्रचंड पवन खरस, बावळ, सूंटो बाजै। धारोळा पाछा ऊंचा चढै तो बिरखा थमै। बादळां बिचाळै सूं छिपतो सूरज झांकै तो बै किरणां मोख नांखै। मतलब बिरखा रो जोर टूट्यो कोनी। जिण रात घणों मेह बरसै बा रात महारैण बाजै। परभातै री बिरखा सुवाव री कोनी मानीजै। पाछलै पोहर री बिरखा सुवाव री गिणीजै।
बूठणूं बिरखा बरसण री क्रिया तो उबरेळो बिरखा थमण री क्रिया बाजै। बिरखा रो जळ पालर पांणी बाजै। बिरखा बरसण सूं उबरेळै लग एकूंक ढांणी, गांव, सहर आपरै खेत, घर आंगणै, छात तकात पर बिरखा रै सुवागत सागै उण री एकूंक छांट नैं मोत्यां सूं मूंघी कर मानैं, घीव ज्यूं बरतै। अै बातां पोथ्यां री कोनी, लोगां री जुबानी है। इणी सूं स्रुति, स्मृति, वेद, कतेब बणी है। जिण बात नैं लोगां याद राखी, बीं नै आगै सुणाई, बधाई अर सगळो समाज आं नैं धारण कर एक जीव हुयग्यो। राजस्थान रै सबद रूप ग्यान नैं लोगां न राज नैं सूंप्यो, न सिरकार नैं, न आज री भासा नैं सूंप्यो, न बाणियां बकालां नैं। घर-घर, गांव-गांव मांय लोगां ही इण संभाळ्यो, आगै बधायो।
-134, गांधीनगर, चूरू। मो. 9460528834

Tuesday, May 24, 2011

सपनो आयो


सपनो आयो

हीरालाल शास्त्री

इण कविता में एक इसै काल्पनिक सपनै रो चितराम मांड्यो है जिणमें साम्राज्य बदळ ज्यावै, राजतंतर, पूंजीवाद अर सोसण सै खतम होवण रै पछै लोकराज आवै। टणका होवै जिका निबळा हो ज्यावै अर निबळां रो राज आवै। तोसाखाना (अन्न-भंडार) खाली हो ज्यावै, महलां रो टापरो बण ज्यावै अर टापरियां रा महल बण ज्यावै। कवि नै पूरो भरोसो है कै ओ सपनो जरूर सांचो होसी।

सपनो आयो एक घणो जबरो रे
सपनो आयो।
काळी पीळी आंधी उठी
चाल्यो सूंट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
थळ को होग्यो जळ, थळ जळ को
संपट पाट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
चैरस भोम में डूंगर बणग्या
माया-जाळ घणो जबरो रे
सपनो आयो।
टीबा ऊठ नदी बै लागी
फैल्यो पाट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
नदियां सूख’र टीबा बणग्या
बेढब भूड घणो जबरो रे
सपनो आयो।
ऊंचा छा सो नीचा उतरया
निचलां ठाठ घणो जबरो रे
सपनो आयो।
टणका छा सो निमळा होयग्या
निमळां राज घणो जबरो रे
सपनो आयो।
म्हैलां की तो टपरी बणगी
टपरी म्हैल घणो जबरो रे
सपनो आयो।
तोसाखाना खाली होयग्या
खाली पेट भरयो जबरो रे
सपनो आयो।
म्हांको सपनो सांचो होसी
समझो भेद घणो जबरो रे
सपनो आयो।

Sunday, May 15, 2011

जन-जन का मुद्दा

आज ख़ुशी हुई जब पहली बार ये पता चला की राजस्थानी भाषा का मुद्दा अब जन-जन का मुद्दा बन गया है, आज हनुमानगढ़ में निजी शिक्षण संस्था संघ के जिला सम्मलेन में शिक्षा के अधिकार के अलावा राजस्थानी भाषा की मान्यता का मुद्दा मंच से उठा, पल्लू के निजी स्कूल के संचालक भारद्वाज जी ने मंच पर विराजमान संसद भरतराम मेघवाल, हनुमानगढ़ विधायक विनोद चौधरी, नोहर विधायक अभिषेक मटोरिया, पीलीबंगा विधायक आदराम मेघवाल और सादुलशहर विधायक संतोष सहारण से मान्यता की मांग विधानसभा और लोकसभा में उठाने की पुरजोर मांग की और साथ ही कहा की धोरां री धरती रो इम्तिहान बहुत हो लियो अब रेत स्यूं लावो फुटेगो, मंच पर ही बैठे हास्य अभिनेता ख्याली सहारण ने भी मान्यता की मांग की और भारद्वाज जी और ख्याली सहारण की मांग पर सेंकडो निजी शिक्षण संस्थानों के संचालको ने जोरदार तालियों और नारों से मांग का समर्थन किया, सच में आज ख़ुशी हुई।
- राजू रामगढ़िया

स्कूली किताबों से दूर हो रही राजस्थानी..

Saturday, May 7, 2011

विप्लव का कवि- मनुज देपावत

विप्लव का कवि- मनुज देपावत

अजय कुमार सोनी

राजस्थान का इतिहास साक्षी है कि यहां का जन साधारण भी बड़ा क्रांतिकारी रहा है। जनसाधारण की इस भावना को बल प्रदान किया यहां की कविता ने। राजस्थान के कवि ने केवल दरबारों की चकाचैंध में रहकर ही कविता नहीं की अपितु अवसर आने पर उनके खिलाफ विप्लवकारी शब्दों से जनता को उत्साहित किया। सामंतों के अन्याय व पूंजीपतियों के अत्याचार ने जब सीमा लांघी तो वह मूक दर्शक नहीं बना रहा। ऐसे ही एक क्रांतिकारी कवि थे मनुज देपावत। मात्र 25 बरस के जीवन काल में उन्होंने न केवल क्रान्तिकारी गीतों का सृजन किया अपितु स्वयं क्रान्ति के अग्रदूत बने। उनके अन्तस्तल में सामंती व्यवस्था को भस्मीभूत करने हेतु प्रचंड प्रलंयकारी आग धधक रही थी। इसलिए उन्होंने धोरों की जनता को जागने का आह्वान किया -
धोरां आळा देस जाग रै, ऊंठा आळा देस जाग।
छाती पर पैणां पड़्या नाग रै, धोरां आळा देस जाग।।
इस क्रान्तिकारी कवि का जन्म कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी विक्रम संवत 1984 को बीकानेर जिले के देशनोक ग्राम में हुआ। इनका असली नाम मालदान देपावत था, परन्तु रचनाकार के रूप में ये मनुज देपावत के नाम से जाने जाते थे। आप डिंगल भाषा के ख्याति प्राप्त कवि श्री कानदान जी देपावत के सुपुत्र थे। मनुज ने श्री करणी-विद्यालय देशनोक और फोर्ट हाई स्कूल बीकानेर से क्रमशः मिडिल और मेट्रिक पास की। वे डूंगर महाविद्यालय बीकानेर के प्रतिभा सम्पन्न छात्र रहे। महाविद्यालय के सालाना जलसे में मुख्य अतिथि, भारत के ख्याति प्राप्त नाट्य कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने इस छोटे कवि बाल मनुज की कविता पर बड़े दुलार के साथ उनकी प्रतिभा के लिए बधाई दी।
महाविद्यालय से निकलने के बाद आपने उत्तर रेलवे में टिकट कलेक्टर के पद पर रहते हुए भी रचनात्मक कार्यों को नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिभा चहुंमुखी थी। श्री मनुज साप्ताहिक ‘लोकमत’ के सह सम्पादक, श्री करणी मण्डल देशनोक के संस्थापक सदस्य, ‘ललकार’, ‘नयी चेतना’ तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं के सुकवि एवं लेखक रहे। उनके निधन के बाद उनकी क्रांतिकारी कविताओं व गीतों का संग्रह ‘विप्लव गान’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया। कवि मनुज मनुष्य को ही अपना भाग्य विधाता मानते हुए उसके युग परिवर्तनकारी स्वरूप का उद्घाटन करते हैं-
मानव खुद अपना ईश्वर है,
साहस उसका भाग्य विधाता।
प्राणों में प्रतिशोध जगाकर,
वह परिवर्तन का युग लाता।
स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तरात्मा की जोरदार लगन थी। इसी आवाज को बुलन्द करते हुए वे कठपुतली शासकों को सम्बोधित करते हैं-
वां कायर कीट कपूतां की,
कवि कथा सुणावण नै जावै
अम्बर री आंख्यां लाज मरै,
धरती लचकाणी पड़ जावै
जद झुकै शीश, नीचां व्है नैण,
धरती रो कण-कण सरमावै।
इसी तरह उन्होंने आजादी से पूर्व अंग्रेजों की नीतियों की भयानकता का पर्दाफाश किया तथा शोषण और अन्याय के खिलाफ मजदूर-किसानों को संघर्ष का संदेश दिया। यह संदेश आज भी जन-आंदोलनों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। असमानता के खिलाफ कवि का उद्घोष है-
रै देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूं मुसकल है जीणो
ऐ खड़ी हवेल्यां हंसै आज, पण झूंपड़ल्यां रो दुःख दूणो
ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है
रै जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है
ऐ जका उजाड़ै झूंपड़ल्यां, उण महलां रै लगा आग।
यही प्रबल भावना उनके सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यों से फूट-फूटकर निकल पड़ती दिखाई देती है। उनकी लेखनी समाज के शोषित जीवन को चित्रित करना अपना उद्देश्य घोषित करती है। मनुज का दृष्टिकोण पूरी तरह मानवतावावदी था। उनकी वेदना का सबसे बड़ा कारण सामाजिक विषमता और मानव की परतंत्रता थी। इन सभी स्थितियों से दुःखी होकर मनुज ने अपने काव्य में विद्रोह का स्वर गुंजाया।
मानव को कायरता से जगा कर नए युग निर्माण की प्रेरणा देने का काम मनुज की कविताएं करती हैं। उनकी दृष्टि में वे सब परम्पराएं मृतप्राय हो गयी हैं और अब उनके मोह में फंसे रहने की आवश्यकता नहीं है। शोषकों एवं उत्पीड़कों के प्रति कवि के हृदय में जबर्दस्त आक्रोश था। जो समाज का शोषण महज अपने स्वार्थ के लिए करता है, उसे ‘नरक के कीट’, ‘वासना पंक निमज्जित’ एवं ‘दुर्दान्तदस्यु’ भी कहा जाय तो भी कम है। क्योंकि इस पूंजीवादी व्यवस्था मंे मनुष्य मानवता का भक्षक बन जाता है, जिसे मनुज जैसा परिवर्तनधर्मा कवि कैसे बर्दाश्त कर सकता है। कवि का भाव इन पंक्त्तियों में प्रकट हुआ है-
यह जुल्म जमींदारों का है,
यह धनिकों की मनमानी है,
बेकस किसान के जीवन की,
यह जलती हुई कहानी है।
मनुज ने पद्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया, परन्तु कम आयु में ही उनका देहान्त हो जाने की वजह से हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्य उनकी बहुमूल्य सेवाओं से वंचित रह गया। श्री मनुज सन 1952 यानि संवत 2009 में मात्र 25 बरस की उम्र में देशनोक व बीकानेर के बीच घटित हुई रेल दुर्घटना में हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चल बसे।
मनुज का दैहिक रूप में आज विद्यमान नहीं है किन्तु अपनी-लेखनी के प्रताप से प्रगतिवादी चिन्तन के क्षेत्र में उनका नाम आज भी अमर है। आज मनुज नहीं रहे पर उन द्वारा लिखी मजूर और करसे की पीड़ा, धोरों के गांवों की बेगार प्रथा की कहानी की अनुगूंज सर्वत्र सुनाई देती है। कवि का स्वर धोरों के कण-कण से इस जलती कहानी को निनादित करता है, और तब हमारा फर्ज और भी अधिक बढ़ जाता है कि शोषण को समाप्त कर कवि की इस जलती कहानी को एक शान्त एवं मधुरिम अंत प्रदान करने के लिए जुट जाएं।

Tuesday, May 3, 2011

वागड़ नो दौरो..............


आप लोगां नै दैनिक भास्कर रो कॉलम आपणी भासा आपणी बात किण भांत लाग्यो?